जितनी तक़लीफ़ें, यातनाएं एक वृक्ष को सहनी पड़ती हैं, उतनी हम मनुष्यों को नहीं. फिर भी वृक्ष के बीज हमेशा वृक्ष होना चाहते हैं. इस घृणा भरे समय में क्यों ज़रूरी है यह सीख, बता रही है नरेश सक्सेना की कविता.
जितनी पत्तियां हैं
उतने दुख हैं वृक्ष के
जितनी शाखें हैं, फल हैं, उतनी आशंकाएं
जितनी गहरी छाया है
यातना है उतनी गहरी
जितनी गहरी जड़ें हैं
उतनी गहराई तक उखड़ना है
जितनी ऊंचाई है
उतने ऊंचे होने हैं आघात
बीज फिर भी क्यों होना चाहते हैं वृक्ष
मनुष्यों की तरह शायद नहीं होते वृक्ष
बीजों को वे अपनी बुरी स्मृतियां नहीं देते
उन्हें वे सिर्फ़ फलों की फूलों की रंगों की ख़ुशबुओं की
मौसमों और चिड़ियों की स्मृतियां ही देते हैं
दुखद स्मृतियों से उन्हें रखते हैं मुक्त
घृणा और हिंसा से भरे इस समय में
पौधों को सींचते हुए
करता हूं कामना उस साहस की
जिसके साथ मिट्टी में कर सकूं प्रवेश
एक बीज की तरह
कवि: नरेश सक्सेना (संपर्क: 09450390241)
कविता संग्रह: समुद्र पर हो रही है बारिश
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
Illustration: Pinterest