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Home बुक क्लब कविताएं

आ तू भी आ कि आ गई छब्बीस जनवरी: नज़ीर बनारसी की नज़्म

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
January 26, 2022
in कविताएं, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
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आ तू भी आ कि आ गई छब्बीस जनवरी: नज़ीर बनारसी की नज़्म
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छब्बीस जनवरी 1950 को भारत एक गणतंत्र राष्ट्र बन गया. उसे दिन के महत्व को बताने-समझाने के लिए कई कवियों ने कविता-गीत लिखे हैं. इस छब्बीस जनवरी पढ़िए नज़ीर बनारसी की नज़्म ‘आ तू भी आ कि आ गई छब्बीस जनवरी’.

ऐ शांति अहिंसा की उड़ती हुई परी
आ तू भी आ कि आ गई छब्बीस जनवरी

सर पर बसंत घास ज़मीं पर हरी हरी
फूलों से डाली डाली चमन की भरी भरी
आई न तू तो सब की सुनूंगा खरी खरी
तुझ बिन उदास है मिरी खेती हरी-भरी
आ जल्द आ कि आ गई छब्बीस जनवरी

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घूंघट उलट रही है चमन की कली कली
शाख़ें तो टेढ़ी-मेढ़ी हैं सूरत भली भली
रंगीनियां हैं बाग़ में ख़ुशबू गली गली
शबनम से है कली की पियाली भरी भरी
आ तू भी आ कि आ गई छब्बीस जनवरी

मुस्का रही है मुझ पे मिरे बाग़ की कली
आंखें दिखा रही है मुझे कल की छोकरी
ऐसा न हो कि फूल उड़ाएं मिरी हंसी
अब तैरने लगी मिरी आंखों में जल-परी
आ जल्द आ कि आ गई छब्बीस जनवरी

कांटे हों चाहे फूल हों फ़स्ल-ए-बहार के
पाले हैं दोनों एक ही पर्वरदिगार के
हम भारती शिकार हैं अपने ही वार के
ऐ शांति अहिंसा की उड़ती हुई परी
धरती पे आ कि आ गई छब्बीस जनवरी

Illustration: Pinterest

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हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

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