क्या होता है जब लोकतंत्र में भी लोग राजा चुनने लगें और तीस पर वो राजा अनपढ़ हो… यह कविता इसी पीड़ा से उपजी है.
लोकतांत्रिक प्रजा नेएक बार सोचा
कि बहुत देख लिए राजनीतिज्ञ बुद्धिजीवी अर्थशास्त्री डिग्रीधारी
अबकि बार किसी अनपढ़ को राजा बनाते हैं
अनपढ़ के मन पर न विद्या की मैल होती है न बुद्धि का अभिमानन ज्ञान का घमंड
वह निश्छल निर्मल पावनऔर सरल होता है
और प्रजा के सौभाग्य से अनपढ़ राजा बन गया
राजा बनते ही वह पढ़े लिखों की ओर बहरा बन गया
सबसे पहले उसने सारी पढ़ाई जहाँ वह कभी नहीं पहुँच सका उसका सत्यानाशआरंभ कर दिया
पढ़ाई और पढ़े-लिखों से इस क़दर चिढ़ा कि तमाम पढ़े-लिखे दरबारियों में जहालत की होड़ लग गई
तमाम सामंतों सूबेदारों सरमायादारों ने बेवकूफ़ी और जहालत के एक से एक नमूने पेश किए
पहले पहल प्रजा लोकतंत्र की ख़ूब ख़ुश हुई
पल पल कपड़े, वादे और इरादे बदलने वाला राजा मसखरों-सा मज़ा देने लगा
पर ज़िंदगी मसखरी तो नहीं न मुल्क ही भड़ैती का रंगमंच
इससें पहले कि प्रजा राजा बदलती अनपढ़ लेकिन धूर्त राजा ने अपने और प्रजा के बीच ईश्वर ला खड़ा किया
इतने बरसों में अनपढ़ होने के बावजू दराजा समझ गया था कि प्रजा को कैसे पढ़ाया जाता है
इतना कहकरआचार्य रुके बटुकों से प्रश्न किया
कथा से क्या सीख मिलती है
राजपुत्र ने उत्तर दिया
प्रजा को चाहिए कि वह किसी अनपढ़ को अंडरएस्टिमेट न करे