फ़िल्मों और साहित्य को हमारे जीवन का एक्सटेंशन कहा जाता है. साहित्य और कहानियों के बारे में तो यह भी कहा जाता है कि यह वो झूठ है, जिसके माध्यम से समाज की सच्चाई बयां होती है. पर कामकाजी महिलाओं के प्रति साहित्य और सिनेमा हद दर्जे तक बायस्ड है. डॉ अबरार मुल्तानी इसी फ़िल्मी सोच के साइड-इफ़ेक्ट्स पर विस्तार से चर्चा कर रहे हैं.
कैसी होती हैं फ़िल्मों वाली टिपिकल कामकाजी महिलाएं
नर्स, कामवाली बाई, लेडी स्कूल टीचर, बॉस की सेक्रेटरी, महिला पार्टी कार्यकर्ता आदि… यह हमारे जोक्स ने, वेब सीरिज़ ने, एड्वर्टाइज़मेंट ने, फ़िल्मों ने और लुगदी साहित्य ने इन्हें आम जनमानस में सेक्स सिंबल की तरह इम्प्लांट कर दिया है. जब भी किसी ऐड या किसी बी, सी या डी ग्रेड वेब सीरिज़ या फ़िल्म में दिखाया जाता है कि एक काम करने वाली बाई घर में पोंछा लगा रही है और उसका ठरकी मालिक उसे लार टपकाते हुए घूर रहा है या नर्स को देखकर एक मरीज़ के दिल की धड़कन बढ़ गई या वह उससे इंजेक्शन लगवाने में दर्द की जगह आनंद का अनुभव करने लगा तथा उसके चेहरे के भाव बताते हैं कि उसके दिल में क्या चल रहा है और उसके रक्त में कौन से हॉर्मोन उबल रहे हैं, किसी गाने में स्कूल की ख़ूबसूरत टीचर को छात्र देख रहे हैं, उसका पल्लू गिरता है और लड़के उसे देखने के लिए आहें भरते हुए खड़े हो जाते हैं, एक बॉस की ख़ूबसूरत महिला सेक्रेटरी है और उससे उसका टाइम पास इश्क़ चल रहा है, एक महिला पार्टी कार्यकर्ता एक नेता के साथ सोती है और अगले ही दिन उसे पार्टी में एक बड़ा पद मिल जाता है… यह सभी देखकर आम लोगों के मन में इन महिला एम्प्लाइज़ के बारे में एक धारणा बन जाती है कि ये सब ऐसी ही होती हैं. अगर कोई महिला यह काम कर रही है मतलब वह इस टाइप की ही होगी. हमारा समाज वह जहाज़ है जो कि धारणाओं की पाल से संचालित होता है. हमारी धारणाएं हमारे फ़ैसलों को प्रभावित करती ही हैं. हम जोक्स का हिस्सा नहीं बनना चाहते लेकिन जोक्स हमारे फ़ैसलों का हिस्सा होते हैं.
कैसे फ़िल्मों और वेब सिरीज़ ने कामकाजी महिलाओं को अपराधबोध से भर देती हैं
मैं जब कल्पना करता हूं कि किसी महिला कर्मचारी के बारे में ऐसे कोई सीन टीवी पर आते होंगे और वही नौकरी कर रही कोई महिला उसके बच्चों और परिवार के दूसरे लोगों के साथ टीवी देख रही हो तो उसे कितना ऑकवर्ड फ़ील होता होगा? उसे कितनी लज्जा आती होगी? उसके मन में अपराध न करने के बावजूद एक अपराधबोध आ जाता होगा. उसके बच्चों पर क्या गुज़रती होगी, जो अपनी मां से बेइंतहा मोहब्बत करते हैं, यह टीवी पर सब कुछ जो दिखाया जा रहा होता है, वह उनके दिल में एक खंजर की तरह चुभता तो होगा. जब दोस्त उनकी मां के व्यवसाय से संबंधित किसी महिला पर कोई नॉनवेज जोक या किसी फ़िल्म का कोई सीन डिस्कस करते होंगे तो उन्हें कितना बुरा लगता होगा?
निचले या निम्न मध्यमवर्ग तबके के लोगों के व्यवसाय से संबंधित यह जोक्स और फ़िल्मों के सीन जब कोई ऐसा व्यक्ति देखता होगा, जिसके लिए परिवार की इज़्ज़त ही सब कुछ है और लोगों के ताने या जो यह समझता है कि महिलाओं में बुद्धि नहीं होती और उन्हें कोई भी बहला-फुसलाकर कुछ भी करवा सकता है या जिनके मन में शंका का बीज हो कि उनकी बेटी, बहू या पत्नी भी ऐसी हो सकती हैं तो फिर वे उन्हें घर से बाहर काम के लिए नहीं जाने देंगे या अगर कोई लड़की पढ़ रही है और वह नर्सिंग या ऐसे ही किसी अन्य व्यवसाय में अपना करियर बनाना चाहती है तो उसके भाई या पिता उसे इस पेशे में जाने से मना करेंगे. कोई युवती अगर राजनीति में अपना करियर बनाना चाहती हैं तो उसके पूरे परिवार वाले उसके ख़िलाफ़ हो जाएंगे.
गलत धारणाओं ने इन परिश्रमी महिलाओं के लिए एक बुरा वातावरण बना दिया है जिसमें इन्हें ईमानदारी से अपना काम करने के बावजूद वह सम्मान नहीं मिलता, जिसकी वे हक़दार हैं.
अगर कोई महिला नौकरी पर जाए और उसके बाद उसके घर में समृद्धि आ जाए तो आस-पड़ोस के लोग या उनके रिश्तेदार उनके बारे में अफ़वाहें फैलाने लगते हैं. मेहनत से काम करने के बावजूद उन्हें समाज बुरी दृष्टि से देखता है. इसे रोका जाना चाहिए.
पुनःश्च मैंने एक महिला से पूछा था कि दुनिया में किसका जीना ज़्यादा मुश्क़िल है, पुरुष का या महिला का? उन्होंने जवाब दिया कि महिलाओं का और उसमें भी सफल महिलाओं का क्योंकि थोड़ा बहुत सफल होने के बाद पुरुषों के साथ-साथ महिलाएं भी उसकी शत्रु बन जाती हैं.