सुमित्रानंदन पंत की सबसे ज़्यादा पढ़ी गई कविताओं में एक ‘आ: धरती कितना देती है’ मनुष्य के स्वार्थी और भाग्यवादी जीवन दर्शन पर प्रहार करती है. कवि अपने बचपन का उदाहरण देकर बताते हैं कि किस तरह उन्होंने छुटपन में छुपकर पैसे बोए थे, इस उम्मीद में कि पैसों के पेड़ उगेंगे. पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. वहीं जब अनजाने में सेम के बीज आंगन में गाड़ दिए तो उनसे लहराती हुईं सेम की बेलें निकल आईं. सेम की बेलें यह बताती हैं कि हम जैसा बीज बोते हैं, वैसा फल हमें मिलता है. यह धरती हमें सबकुछ दे सकती है, बस हमारी नियत और कर्म ठीक होने चाहिए.
मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोए थे
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे!
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी
और, फूल फलकर मैं मोटा सेठ बनूंगा!
पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा न उगला
सपने जाने कहां मिटे, कब धूल हो गए
मैं हताश हो, बाट जोहता रहा दिनों तक,
बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर
मैं अबोध था, मैंने ग़लत बीज बोए थे
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था
अर्धशती हहराती निकल गई है तबसे
कितने ही मधु पतझर बीत गए अनजाने
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूलीं, शरदें मुसकाईं
सी-सी कर हेमन्त कंपे, तरु झरे, खिले वन
औ’ जब फिर से गाढ़ी ऊदी लालसा लिए
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर
मैंने कौतूहलवश आंगन के कोने की
गीली तह को यों ही उंगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे
भू के अन्चल मे मणि माणिक बांध दिए हों
मैं फिर भूल गया था छोटी सी घटना को
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन
किन्तु एक दिन, जब मैं सन्ध्या को आंगन में
टहल रहा था-तब सहसा मैंने जो देखा
उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से
देखा आंगन के कोने में कई नवागत
छोटी-छोटी छाता ताने खड़े हुए हैं
छाता कहूं कि विजय पताकाएं जीवन की
या हथेलियां खोले थे वे नन्हीं, प्यारी
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चे से
निर्निमेष, क्षण भर मैं उनको रहा देखता
सहसा मुझे स्मरण हो आया कुछ दिन पहले
बीज सेम के रोपे थे मैंने आंगन में
और उन्हीं से बौने पौधौं की यह पलटन
मेरी आंखो के सम्मुख अब खड़ी गर्व से
नन्हे नाटे पैर पटक, बढ़ती जाती है
तबसे उनको रहा देखता धीरे-धीरे
अनगिनत पत्तों से लद भर गई झाड़ियां
हरे भरे टंग गए कई मखमली चन्दोवे
बेलें फैल गईं बल खा, आंगन में लहरा
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे हरे सौ झरने फूट ऊपर को
मैं अवाक रह गया वंश कैसे बढ़ता है
यह धरती कितना देती है
धरती माता कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को
नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्व को
बचपन में, छि: स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर
रत्न प्रसविनि है वसुधा, अब समझ सका हूं
इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं
इसमें मानव ममता के दाने बोने हैं
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की-जीवन क्ष्रम से हंसे दिशाएं
हम जैसा बोएंगे वैसा ही पाएंगे
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