आंसू शीर्षक से लिखी गई गुलज़ार साहब की ये तीन कविताएं अपने हर अल्फ़ाज़ के साथ कमाल करती हैं. आंसू की परिभाषा ही नहीं, भाषा भी बता जाती हैं.
1.
अल्फ़ाज़ जो उगते, मुरझाते, जलते, बुझते
रहते हैं मेरे चारों तरफ़,
अल्फ़ाज़ जो मेरे गिर्द पतंगों की सूरत उड़ते
रहते हैं रात और दिन
इन लफ़्ज़ों के किरदार हैं, इनकी शक्लें हैं,
रंग रूप भी हैं-और उम्रें भी!
कुछ लफ़्ज़ बहुत बीमार हैं, अब चल सकते नहीं,
कुछ लफ़्ज़ तो बिस्तरेमर्ग पे हैं,
कुछ लफ़्ज़ हैं जिनको चोटें लगती रहती हैं,
मैं पट्टियां करता रहता हूं!
अल्फ़ाज़ कई, हर चार तरफ़ बस यू हीं
थूकते रहते हैं,
गाली की तरह
मतलब भी नहीं, मकसद भी नहीं
कुछ लफ़्ज़ हैं मुंह में रखे हुए
चुइंगगम की तरह हम जिनकी जुगाली करते हैं!
लफ़्ज़ों के दांत नहीं होते, पर काटते हैं,
और काट लें तो फिर उनके जख़्म नहीं भरते!
हर रोज़ मदरसों में ‘टीचर’ आते है गालें भर भर के,
छः छः घंटे अल्फ़ाज़ लुटाते रहते हैं,
बरसों के घिसे, बेरंग से, बेआहंग से,
फीके लफ़्ज़ कि जिनमें रस भी नहीं,
मानि भी नहीं!
एक भीगा हुआ, छल्का छल्का, वह लफ़्ज़ भी है,
जब दर्द छुए तो आंखों में भर आता है
कहने के लिए लब हिलते नहीं,
आंखों से अदा हो जाता है!!
2.
सुना है मिट्टी पानी का अज़ल से एक रिश्ता है,
जड़ें मिट्टी में लगती हैं,
जड़ों में पानी रहता है
तुम्हारी आंख से आंसू का गिरना था कि दिल
में दर्द भर आया,
ज़रा से बीज से कोंपल निकल आई!!
जड़ें मिट्टी में लगती हैं,
जड़ों में पानी रहता है!!
3.
शीशम अब तक सहमा सा चुपचाप खड़ा है,
भीगा भीगा ठिठुरा ठिठुरा
बूंदें पत्ता पत्ता कर के,
टप टप करती टूटती हैं तो सिसकी की आवाज़
आती है!
बारिश के जाने के बाद भी,
देर तलक टपका रहता है!
तुमको छोड़े देर हुई है
आंसू अब तक टूट रहे हैं
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