दुनिया में कई काम महज़ रस्म अदायगी के लिए कर दिए जाते हैं. जावेद अख़्तर की यह कविता इसी रस्म अदायगी की मुख़ालफ़त कर रही है.
अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना
सिर्फ़ एहसान जताने के लिए मत आना
मैंने पलकों पे तमन्नाएं सजा रखी हैं
दिल में उम्मीद की सौ शम्मे जला रखी हैं
ये हसीं शम्मे बुझाने के लिए मत आना
प्यार की आग में जंजीरें पिघल सकती हैं
चाहने वालों की तक़दीरें बदल सकती हैं
तुम हो बेबस ये बताने के लिए मत आना
अब तुम आना जो तुम्हें मुझसे मुहब्बत है कोई
मुझसे मिलने की अगर तुमको भी चाहत है कोई
तुम कोई रस्म निभाने के लिए मत आना
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