आदिवासी और आदिवासी लड़कियों के कठिन और संघर्षों से भरे जीवन के रोमैंटिसिज़म को तगड़ा जवाब देती है संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल. आदिवासियों के अभावों से भरे जीवन को ग्लोरिफ़ाई करने की कोशिशों को वे महज़ शब्दों का धोखा बताती हैं.
ऊपर से काली
भीतर से अपने चमकते दांतों
की तरह शान्त धवल होती हैं वे
वे जब हंसती हैं फेनिल दूध-सी
निश्छल हंसी
तब झर-झराकर झरते हैं….
पहाड़ की कोख में मीठे पानी के सोते
जूड़े में खोंसकर हरी-पीली पत्तियां
जब नाचती हैं कतारबद्ध
मांदल की थाप पर
आ जाता तब असमय वसन्त
वे जब खेतों में
फसलों को रोपती-काटती हुई
गाती हैं गीत
भूल जाती हैं ज़िन्दगी के दर्द
ऐसा कहा गया है
किसने कहे हैं उनके परिचय में
इतने बड़े-बड़े झूठ?
किसने?
निश्चय ही वह हमारी जमात का
खाया-पीया आदमी होगा…
सच्चाई को धुन्ध में लपेटता
एक निर्लज्ज सौदागर
ज़रूर वह शब्दों से धोखा करता हुआ
कोई कवि होगा
मस्तिष्क से अपाहिज!
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