अमूमन खानपान, रहन-सहन, तीज त्यौहार, शादी-ब्याह के तौर-तरीक़ों, धर्म और धार्मिक कर्मकांड के सम्मिलित रूप को संस्कृति कहते हैं. लेकिन संस्कृति कोई स्थूल चीज़ भी नहीं है और न ही स्थिर रहती है. यह तो सतत परिवर्तनशील है. यह तो आप भी महसूस करते होंगे कि खानपान, रहन-सहन, तीज-त्यौहार सब लगातार बदल रहा है. ऐसे में पत्रकार व यूट्यूबर सलमान अरशद हमसे न केवल यह पूछ रहे हैं कि भारतीय संस्कृति आख़िर किस चिड़िया का नाम है, बल्कि वे हमारे लिए इसकी व्याख्या भी कर रहे हैं.
क्या आप जानते हैं कि भारतीय संस्कृति किस चिड़िया का नाम है? अमूमन खानपान, रहन-सहन, तीज त्यौहार, शादी-ब्याह के तौर-तरीक़ों, धर्म और धार्मिक कर्मकांड के सम्मिलित रूप को संस्कृति कहते हैं. भारत के संदर्भ में यह ख़ास बात है कि देश के अलग-अलग इलाक़ों की संस्कृति भी अलग-अलग है यानी भारत विविध संस्कृतियों वाला देश है. हम हमारी इस विविधता पर गर्व कर सकते हैं, लेकिन अहम सवाल है कि इनमें से किसी एक को भारतीय संस्कृति क्यों कहा जाए?
उत्तर भारत के हिन्दुओं की संस्कृति देश के एक बड़े हिस्से में सामान्य रूप से पाई जाती है, लेकिन इसमें भी इतनी एकरूपता नहीं है कि इसे भारतीय संस्कृति के रूप में सर्वोच्चता मिल सके. दक्षिण में नज़दीकी रिश्तों में शादियां होती हैं, लेकिन उत्तर का ब्राह्मण तो गोत्र तक के भीतर भी शादी नहीं करता. मिथिला का ब्राह्मण दबा के गोश्त खाता है, जबकि उत्तर प्रदेश में मांस खाने वाले ब्राह्मण को असम्मान की नज़र से देखा जाता है. आप झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ या फिर पूर्वोत्तर के इलाक़ों में चले जाएं तो एक बिल्कुल अलग संस्कृति मिलेगी.
फिर संस्कृति कोई स्थूल चीज़ भी नहीं है और न ही स्थिर रहती है. ये तो सतत परिवर्तनशील है. मांसाहार से कोसों दूर रहने वाला जैन समाज वेज कबाब खाता भी है और शादियों में खिलाता भी है. जिसका स्वाद बिल्कुल नॉनवेज कबाब का ही होता है. जैन जो सदियों से ख़ुद को अहिंसावादी, शाकाहारी समाज के रूप में प्रस्तुत करता रहा है उसे एक नॉनवेज डिश की नक़ल क्यों करनी पड़ी, सोचिएगा! यही नहीं, बाज़ार रोज़-रोज़ संस्कृति को अपडेट कर रहा है, जैन समाज मांसाहार की कल्पना को भी पाप समझता है, लेकिन भरपूर मुनाफ़ा कमाने के लिए बीफ़ उद्योग में उतरता है और कत्लखाने खोलता है.
यूरोप का पहनावा आज भारत में स्कूल और आफ़िस में ऑफ़िशल ड्रेस है. कुर्ता-पाजामा मुसलमान लेकर आए. जलेबी, समोसा और तमाम मुगलई खाने, जो आप चटखारे लेकर खाते हैं, ये बाहर से आने वाले मुसलमान लेकर आए. यह सब इसलिए हुआ कि संस्कृतियां सतत चलायमान और परिवर्तनशील हैं. जब एक संस्कृति दूसरी संस्कृति के साथ मिलती है और दोनों थोड़ा और समृद्ध हो जाती हैं. भारत का मुसलमान ख़ुद को अरब से भले जोड़ता है, लेकिन रहन सहन खानपान सब यहीं का फ़ॉलो करता है, यहाँ तक कि भारतीय समाज का सांस्कृतिक कचरा भी सर पर लिए ढो रहा है. जाति प्रथा, शादी में वर ढूंढ़ना, दहेज़ लेना, ब्याह कर लाई गई बहू को गुलाम बना देना, संपत्ति में लड़कियों का हिस्सा न देना, ये सब इस्लाम में तो नहीं है, लेकिन मुसलमान में है. क्या इसे भारतीय संस्कृति का असर नहीं माना जाना चाहिए?
इस बात पर गर्व करना कि हमारी संस्कृति हज़ारों साल पुरानी है, नादानी ही है. हम देख रहे हैं कि खानपान, रहन-सहन, तीज-त्यौहार सब लगातार बदल रहा है.
आज़ादी की लड़ाई के दौर के नेताओं की तस्वीरें आसानी से मिल जाती हैं, उन्हें देखिए और आज के नेताओं को देखिए. उनके लुक और ड्रेसिंग में बहुत अंतर मिलेगा. याद कीजिए कि आज से 30 साल पहले के हाट-बाज़ार क़रीब-क़रीब ग़ायब हो गए हैं, मॉल संस्कृति कस्बाई इलाक़ों तक पहुंच गई है. थोड़े में यह कि इस क़ायनात में एक ही चीज़ शाश्वत है और वो है परिवर्तन. हर पल हर शय बदल रही है, मैं और आप सब बदल रहे हैं, ठहराव एक भ्रम है. एक और बात, हमारी चेतना का विकास अग्रगामी है, इसे पीछे ले जाने की कोशिश एक पल को सफल होती हुई भले नज़र आए लेकिन नाकामी ऐसी कोशिशों का मुक़द्दर है. इसके बावजूद संस्कृति की प्राचीनता गौरव नहीं शर्म की बात होनी चाहिए, दरअसल प्राचीनता के बखान के ज़रिए आप ये कहना चाहते हैं कि आपके इर्द-गिर्द ऐसा कुछ है जो सैकड़ों सालों से नहीं बदला, लेकिन जब आपसे ऐसी चीज़ों को देखने को कहा जाए तो कुछ भी दिखाने की स्थिति में नहीं होते, फिर भी अगर कुछ है, जो नहीं बदला तो ये गर्व की बात कैसे हो गई? हर जीव की बनावट, पेड़ पौधों की प्रजातियां, मनुष्य का शरीर, मन, उसके विचार, क्या है जो नहीं बदल रहा है. पत्थर नहीं बदलता, लेकिन विज्ञान तो आज उसे भी स्थिर मानने को तैयार नहीं है.
हमारे नज़दीक इतिहास को पीछे ले जाने की दो कोशिशें नज़र आ रही हैं, बहुत से लोग सोच रहे हैं कि ये कामयाब हो रही हैं, पर ऐसा न है न होगा. तालिबान एक इस्लामिक पंथ की विचारधारा पर आधारित निज़ाम क़ायम करना चाहता है, सफल होता हुआ भी नज़र आता है, लेकिन 20 साल पहले वाले तालिबान और आज के तालिबान में मामूली ही सही फ़र्क तो है! और ये मामूली फ़र्क वो बीज है जो कल वृक्ष बनेगा और तालिबान अगर रह भी गए तो भी उनके बदले हुए रूप को आप देखेंगे.
दूसरा भारत में आरएसएस है, वर्ष 2002 तक अपने कार्यालय पर तिरंगा न फहराने वाला आरएसएस आज तिरंगा यात्रायें निकालता है. तन मन धन से अंग्रेज़ों का साथी रहा आरएसएस आज देशभक्ति के रंग में ही सब कुछ करता है. ख़ुद उसका ड्रेस भारतीय नहीं है, यहां तक कि भारत माता की अवधारणा भी ब्रिटेन से ली गई है. क्या आरएसएस से ज़्यादा समर्पित कोई और “सांस्कृतिक” संगठन है, लेकिन ये भी दूसरी संस्कृतियों से कुछ न कुछ ले रहे हैं. ये “लेना” सभ्यतागत विवशता है चुनाव नहीं. ये विवशता ही भविष्योन्मुखी परिवर्तन को अपरिहार्य बनाएगी और अतीतगामी तमाम गतियों को लगाम लगाएगी. अभी तो फ़िलहाल आरएसएस का हाफ़ पेंट भी फुल हो गया है. आरएसएस को अपना हाफ़ पेंट क्यों बदलना पड़ा? इस छोटी सी घटना में परिवर्तन का सहगामी बनने की मजबूरी को देखा जा सकता है.
भारत में हर राज्य में एक अलग तरह की संस्कृति है, यहां तक कि एक राज्य के ही भीतर कई अलग अलग संस्कृति के लोग रहते हैं. अत: कम से कम भारत जैसे देश में किसी भी इलाक़े की किसी एक संस्कृति को भारतीय संस्कृति तो नहीं ही कहा जा सकता. हां, हम ये ज़रूर कह सकते हैं कि भारत एक ऐसा देश है, जहां कई तरह की संस्कृति के लोग एक साथ रहते हुए एक-दूसरे की संस्कृति को समृद्ध करते हैं. विविधतापूर्ण इस संस्कृति को एकरूप करने की कोई भी कोशिश इसे विकसित नहीं, बल्कि विकृत करेगी.
अत: कोई भी संस्कृति किसी धर्म या जाति की न तो बपौती है न ही स्थाई पहचान. पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजी ख़ुद अपने थैले में संस्कृति को लेकर चलती है और जो भी इस पूंजी को ग्रहण करता है उसे ये संस्कृति भी लेनी ही पड़ती है. लिहाज़ा हिन्दू संस्कृति, इस्लामिक संस्कृति, भारतीय संस्कृति, यूरोपियन संस्कृति आदि भाषागत सहूलियतें हैं. इन्हें माथे का तिलक बनाएंगे तो भेजा सड़ जाएगा. बाक़ी आपकी मर्ज़ी!
फ़ोटो साभार: फ्रीपिक