गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर कविता ‘आत्मत्राण’ में ईश्वर से बात कर रहे हैं. वे ईश्वर से दुख, हानि, मुसीबत आदि से छुटकारा नहीं मांग रहे हैं. बल्कि चाहते हैं हर परिस्थिति का सामना करने का संबल चाहते हैं. इस कविता का अनुवाद हजारीप्रसाद द्विवेदी ने किया है.
विपदाओं से मुझे बचाओ, यह मेरी प्रार्थना नहीं
केवल इतना हो (करुणामय)
कभी न विपदा में पाऊं भय
दुःख-ताप से व्यथित चित्त को न दो सांत्वना नहीं सही
पर इतना होवे (करुणामय)
दुख को मैं कर सकूं सदा जय
कोई कहीं सहायक न मिले
तो अपना बल पौरुष न हिले
हानि उठानी पड़े जगत् में लाभ अगर वंचना रही
तो भी मन में ना मानूं क्षय
मेरा त्राण करो अनुदिन तुम यह मेरी प्रार्थना नहीं
बस इतना होवे (करुणायम)
तरने की हो शक्ति अनामय
मेरा भार अगर लघु करके न दो सांत्वना नहीं सही
केवल इतना रखना अनुनय
वहन कर सकूं इसको निर्भय
नत शिर होकर सुख के दिन में
तव मुख पहचानूं छिन छिन में
दुःख-रात्रि में करे वंचना मेरी जिस दिन निखिल मही
उस दिन ऐसा हो करुणामय,
तुम पर करूं नहीं कुछ संशय
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