चाहे पेंच कसना हो या बातचीत, उसके साथ सहज रहना ज़रूरी है. पेंच को बेवजह कसने से उसकी चूड़ी मर जाती है और बातचीत में ज़बर्दस्ती करने से उसकी भावना. कुंवर नारायण की कविता ‘बात सीधी थी पर’ इसी सच्चाई को बयां करती है.
बात सीधी थी पर एक बार
भाषा के चक्कर में
ज़रा टेढ़ी फंस गई
उसे पाने की कोशिश में
भाषा को उलटा पलटा
तोड़ा मरोड़ा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आए
लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
बात और भी पेचीदा चली
सारी मुश्क़िल को धैर्य से समझे बिना
मैं पेंच को खोलने के बजाए
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
क्योंकि इस करतब पर मुझे
साफ़ सुनाई दे रही थी
तमाशबीनों की शाबाशी और वाह वाह
आख़िरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था
ज़ोर ज़बरदस्ती से
बात की चूड़ी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी!
हार कर मैंने उसे कील की तरह
उसी जगह ठोंक दिया
ऊपर से ठीकठाक
पर अंदर से
न तो उसमें कसाव था
न ताकत!
बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी,
मुझे पसीना पोंछते देख कर पूछा
‘‘क्या तुमने भाषा को
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा?’’
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