इन दिनों देश में हिंदू और मुस्लिम नागरिकों के बीच एक अनकही-सी दीवार खींची जा रही है. जिसका मक़सद केवल वोट पाना है, लेकिन गांधी का यह देश वैमनस्यता की इन कोशिशों को कामयाब नहीं होने देगा. यही अरमान दिल में लेकर ओए अफ़लातून अपनी नई पहल के साथ हाज़िर है, जिसका नाम है- देश का सितारा. जहां हम आपको अपने देश के उन मुस्लिम नागरिकों से मिलवाएंगे, जिन्होंने हिंदुस्तान का नाम रौशन किया और क्या ख़ूब रौशन किया. इसकी पहली कड़ी में आप मिलिए बदरुद्दीन तैयबजी से, जो बॉम्बे हाई कोर्ट के पहले भारतीय वकील थे.
बदरुद्दीन तैयबजी (1844-1906) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शुरुआती दौर के एक प्रमुख वकील, समाज सुधारक और राजनीतिज्ञ थे. वे अपने कानूनी कौशल और निष्पक्षता के लिए प्रसिद्ध थे. उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक के रूप में जाना जाता है. उन्हें कॉन्ग्रेस के तीसरे अध्यक्ष के रूप में भी पहचाना जाता है. धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनकी आस्था, शिक्षा के प्रति उनका समर्पण और जब हम पर अंग्रेज़ी शासन चलता था, तब हिंदू-मुस्लिम एकता की वकालत ने उन्हें अपने समय का एक असाधारण व्यक्तित्व बना दिया.
उच्च शिक्षा को तरजीह देने वाला तैयबजी परिवार
बदरुद्दीन तैयबजी का जन्म 10 अक्टूबर 1844 को ब्रिटिश भारत के बॉम्बे प्रेसीडेंसी (अब मुंबई) में एक धनी और शिक्षित सुलैमानी बोहरा मुस्लिम परिवार में हुआ था. उनके पिता, मुल्ला तैयब अली भाई मियां, खंभात (कैम्बे) से आए एक पुराने अरब प्रवासी परिवार से थे. उनके परिवार में शिक्षा को बहुत महत्व दिया जाता था, जिसका प्रभाव बदरुद्दीन की सोच और कामकाज पर स्पष्ट दिखाई देता है. उनके पिता ने अपने सात बेटों को उच्च शिक्षा के लिए यूरोप भेजा, जो उस समय भारतीय मुस्लिम समुदाय में असामान्य था.
बदरुद्दीन ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मुंबई के एलफ़िन्स्टन स्कूल में प्राप्त की और फिर वर्ष 1860 में क़ानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गए. वहां उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय और मिडल टेम्पल में दाखिला लिया. आंखों की बीमारी के कारण वर्ष 1864 में उन्हें कुछ समय के लिए भारत लौटना पड़ा, लेकिन वर्ष 1865 में वे फिर से इंग्लैंड गए और अप्रैल 1867 में बैरिस्टर बनकर बॉम्बे हाई कोर्ट में प्रैक्टिस शुरू की. वे बॉम्बे हाई कोर्ट के पहले भारतीय बैरिस्टर बने, जो उस समय एक बड़ी उपलब्धि थी.
समाज सुधार के प्रयास
बदरुद्दीन ने अपने कानूनी करियर के साथ-साथ सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने वर्ष 1874 में मुंबई में अंजुमन-ए-इस्लाम की स्थापना की, जिसका उद्देश्य मुस्लिम समुदाय में आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देना था. यह संस्था आज भी मुंबई में 50 से अधिक शैक्षणिक संस्थानों के रूप में फल-फूल रही है, जिनमें अंजुमन-ए-इस्लाम डॉ. एम.आई.जे. गर्ल्स हाई स्कूल एंड जूनियर कॉलेज, बांद्रा; अंजुमन-ए-इस्लाम हाई स्कूल, सीएसटी; अंजुमन-ए-इस्लाम टीचर्स ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट आदि शामिल हैं. इसके अलावा, उन्होंने बॉम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन की स्थापना में भी योगदान दिया था, जो राजनीतिक और सामाजिक सुधारों से जुड़ा एक मंच था.
बदरुद्दीन हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे और धर्मनिरपेक्ष समाज की कल्पना करते थे. उन्होंने महिलाओं की शिक्षा और स्वतंत्रता का समर्थन किया और पर्दा प्रथा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई. उन्होंने अपनी बेटी को उच्च शिक्षा दिलाने का निर्णय लिया था, जो उस समय के रूढ़िवादी समाज में एक क्रांतिकारी कदम था. उनके सामाजिक सुधारों ने मुस्लिम समुदाय को आधुनिकता की ओर ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
राजनीति में दख़ल
राजनीतिक क्षेत्र में, बदरुद्दीन ने फ़िरोज़ शाह मेहता, दादाभाई नौरोजी, और उमेशचंद्र बनर्जी जैसे नेताओं के साथ मिलकर भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस की स्थापना में सक्रिय भूमिका निभाई. वर्ष 1882 में वे बॉम्बे विधान परिषद के सदस्य बने. यही नहीं, वे वर्ष 1885 में कॉन्ग्रेस के संस्थापक सदस्यों में भी शामिल थे. उन्होंने मुस्लिम समुदाय को कॉन्ग्रेस के साथ जोड़ने के लिए विशेष प्रयास किए और सर सैयद अहमद ख़ान जैसे नेताओं के कॉन्ग्रेस-विरोधी विचारों का खंडन किया.
तिलक को दी ज़मानत
बदरुद्दीन की कानूनी निष्पक्षता का सबसे प्रमुख उदाहरण बाल गंगाधर तिलक का वर्ष 1897 का राजद्रोह मुकदमा है. तिलक पर केसरी अख़बार में शिवाजी की हत्या को उचित ठहराने वाले लेख और भाषणों के लिए राजद्रोह का आरोप लगाया गया था. उस समय ब्रिटिश प्रशासन और यूरोपीय वकीलों का दबदबा था और तिलक की जमानत याचिका दो बार खारिज हो चुकी थी. बदरुद्दीन, जो तब बॉम्बे हाई कोर्ट के न्यायाधीश थे, ने तीसरी सुनवाई में तिलक को ज़मानत देने का साहसिक फ़ैसला किया. यह निर्णय न केवल उनकी निष्पक्षता को दर्शाता है, बल्कि उस समय के तनावपूर्ण राजनीतिक माहौल में उनकी हिम्मत को भी उजागर करता है.
कॉन्ग्रेस अध्यक्ष के रूप में भूमिका
वर्ष 1887 में, बदरुद्दीन तैयबजी को भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के तीसरे वार्षिक अधिवेशन (मद्रास) का अध्यक्ष चुना गया. वे कॉन्ग्रेस के पहले मुस्लिम अध्यक्ष थे. अपने अध्यक्षीय भाषण में, उन्होंने भारत के विभिन्न समुदायों—हिंदू, मुस्लिम, पारसी, और ईसाई—के बीच एकता पर ज़ोर दिया. उन्होंने कहा, “मुझे समझ नहीं आता कि सभी के हित में देशवासियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर मुसलमान आगे क्यों नहीं बढ़ सकते.” उनके नेतृत्व में, कॉन्ग्रेस ने मुस्लिम समुदाय को संगठन के साथ जोड़ने का प्रयास किया और राष्ट्रीय एकता को मज़बूत करने पर ध्यान केंद्रित किया.
निधन और विरासत
वर्ष 1902 में, बदरुद्दीन को बॉम्बे हाई कोर्ट का कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया और वर्ष 1906 में उन्हें पूर्ण मुख्य न्यायाधीश बनाया गया. हालांकि, उसी वर्ष 19 अगस्त 1906 को लंदन में छुट्टियां मनाते समय दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया. उनकी मृत्यु ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और कानूनी क्षेत्र में एक बड़ा शून्य छोड़ा.
बदरुद्दीन तैयबजी एक ऐसा व्यक्तित्व थे, जिन्होंने देश में क़ानून, शिक्षा, और राजनीति के क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ी. उनकी निष्पक्षता, धर्मनिरपेक्षता, और सामाजिक सुधारों के प्रति समर्पण ने उन्हें अपने समय का एक प्रेरणादायक नेता बनाया. तिलक के मुकदमे में उनकी भूमिका और कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष के रूप में उनके प्रयास भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव मज़बूत करने में महत्वपूर्ण रहे. वे महिलाओं की स्थिति में सुधार के पक्षधर थे. उन्होने महिलाओं की शिक्षा के हक़ में और पर्दा प्रथा के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की. उनकी विरासत आज भी अंजुमन-ए-इस्लाम जैसे संस्थानों के ज़रिए, उनके द्वारा प्रेरित मूल्यों में जीवित है.