यूं तो इस कविता को कवि ने बरसों पहले लिखा था, लेकिन इसका आज के समय से बहुत साम्य है. ऐसी कविताएं, जो लिखे जाने के बाद भी लंबे अर्से तक प्रासंगिक बनी रहती हैं, हमेशा नई-सी भी बनी रहती हैं… अमर हो जाती हैं. इस कविता को पढ़कर आपको भी यही एहसास होगा.
बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले,
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़े, रुकें, खाएं और गाएं
वे जिसको त्यौहार कहें सब उसे मनाएं
कभी-कभी जादू हो जाता दुनिया में
दुनियाभर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गए
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गए
हंस, मोर, चातक, गौरैये किस गिनती में
हाथ बांधकर खड़े हो गए सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगाएं
पिऊ-पिऊ को छोड़े कांओं-काओं गाएं
बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को
कौओं की ऐसी बन आई पांचों घी में
बड़े-बड़े मंसूबे आए उनके जी में
उड़ने तक तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ़ रह गए बैठे ठाले
आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं, चार कौओं का दिन है
उत्सुकता जग जाए तो मेरे घर आना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना?
फ़ोटो साभार: फ्रीपिक