बंगाल का काला जादू उत्तर की कई लोककथाओं में बदनाम रहा है. उन लोक कथाओं में रोजी कमाने बंगाल की तरफ़ गए पुरुषों को बंगाली बालाएं अपने सम्मोहन में फांस लेती थीं. वरिष्ठ कवयित्री अनामिका की कविता ‘बंगाल का काला जादू’ कमाने के लिए बाहर गए पुरुषों की बिरहन पत्नियों की शंकाओं-कुशंकाओं को शब्द व भाव देती है.
‘रेलिया न बैरी, जहजिया न बैरी,
बैरी नोकरिया हो राम’
देखा है औरतों को गाते बिरहा के गीत,
कोसते हुए सौतन-बैरन नौकरियों को
जिनके चक्कर में पियाओं को गौने के बाद ही
चला जाना होता था कलकत्ता
रंगून,
कारू-कामाख्या!
टुकुर-टुकुर रस्ता निहारती,
कौए से कभी, कभी राही-बटोही से
पूछती फिरती थीं
आठ से साठ बरस तक की
बिरहिनें
कि पिऊ उनके मिले कि नहीं बाट में!
बेचारे राही-बटोही भी क्या जानते होंगे
कौन पिऊ हैं उनके,
वे तो ख़ुद ही होते होंगे किसी के
बिछुड़े पिऊ!
पर फिर भी जैसे बहला देती थी।
सीता को त्रिजटा
कुछ भी बहाने बनाकर,
वे कुछ तो कह ही देते होंगे ऐसा
जिससे कि धीरज बंधे!
बंगाल के काले जादू की चर्चा तो
आपने भी सुनी ही होगी!
गोपीनाथ की जो वो लोककथा गाते हैं जोगी,
उसमें बंगाल की ही तो हैं सातों जादूगरनियां
जो करती हैं वाक्-युद्ध
सिद्ध जोगियों से,
देती हैं उनको जवाब
तुर्की-ब-तुर्की
और पलट देती हैं पासा!
तेलिन, धोबिन, काछिन, भटियारिन,
भिश्तिन, चमारिन और डोमिन
सात प्रगल्भा नायिकाएं
किसी से नहीं डरतीं
और भाशिक व्यंजना ही है उनका हथियार,
सधे हुए वे वाक्य ही तो हैं उनका
तीर, तमंचा, भाला, बर्छ, तलवार
जिनसे बिंधता है हृदय सीधा,
एक बूंद ख़ून नहीं बहता!
बहते हैं बस आंसू
मिट्टी पर गिरकर जो बन जाते हैं चमचम आईना
प्रतिपक्षी की चुधिया जाती हैं आंखें
और फिर जब खुलती हैं
तो उनमें दिखती है उनको
अपनी ऐसी सूरत
कि वे डर जाते हैं अपने से!
भाषा ही वह काला जादू है
जो आपको आपके
अपने चेहरे से डरा सकती है
वही है कटार, वही आईना
यह हमने जाना था
बंगाल की उन जादूगरनियों से
जिनकी विद्या काली विद्या ही कही गई
क्योंकि था भाषा का वैभव वहां!
उनसे बहुत ज़्यादा डरती थीं सब बिरहिने
कि जिसने पोस लिया
सुग्गा बनाके
जालंधर बाबा को,
बबुआ के बाबू को पोस नहीं ले कहीं!
उनके बारे में ही रह-रहकर होते थे
उनको अंदेसे
कि भेड़-बकरी बनाकर
पोस ही लिया होगा
उनके पियाओं को,
तब ही वे कभी नहीं लौटे!
बंगालिनें अब तक हमारी तरफ़
कहलाती हैं जादूगरनी कि
उनकी उन मदमस्त आंखों में
भाषा की पांखें खुल जाने का संतोष
सम्मोहन बनकर खिल जाता है
और जो भी पास जाता है
जीव-जंतु और पंछी-पुरुख
‘आमी तोमाके भालोबाषी’ वाले
चक्कर में पड़ जाता है!
इस डर का ही
पुनर्जन्म है यह सवाल
जो पूछती है बिरहिनी अब
मुन्नी मोबाइल पर अपने पियाओं से
कैसे हैं? के पहले ‘‘कहां हैं, जनाब?’’
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