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बारिशों वाली शाम: जयंती रंगनाथन की कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
April 30, 2021
in नई कहानियां, बुक क्लब
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बारिशों वाली शाम: जयंती रंगनाथन की कहानी
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ज़िंदगी में सबकुछ सामान्य चल रहा हो या न चल रहा हो, पर कभी-कभी कोई उमंग मन के साथ-साथ शरीर में भी उठती है. एक औरत शरीर भी रखती है और जाने-अनजाने उसे यह एहसास भी होता है कि इसकी ज़रूरतें सिर्फ़ रोटी-कपड़ा-मकान भर ही तो नहीं हैं. बारिशों वाली उस शाम ऐसी एक उमंग के पीछे भागती बबली की उमंग को क्या कोई ठौर मिला?

काउंटर पर नया चेहरा. ऐसा नहीं है कि यहां बाहर के बाशिंदे नहीं आते. टूरिस्ट जगह है. हर कोई आता है दवाई ख़रीदने. पर उस चेहरे की बात अलग थी. तीस के आसपास उम्र. लंबा क़द, घुंघराले कुछ लंबे बाल, शायद अपने शहर में पोनी बांध कर रखता होगा बालों में. चेहरे में कोई बात थी. कुछ सकुचाया-सा खड़ा रहा कुछ देर. दो-तीन ग्राहक थे, उनके जाने के बाद धीरे से मेरी तरफ़ बढ़ आया,‘‘मैडम, मुझे वो दे दीजिए… पैड्स.’’
मैं एक क्षण रुकी, बिना भाव जताए पूछ लिया, ‘‘सैनिटरी नैपकिन्स?’’
उसने सिर हिलाया, मैं उसी तरह भाव हीन बनी रही, ‘‘कोई ख़ास ब्रांड?’’
वो हिचकिचाया,‘‘इतना सब तो मुझे नहीं मालूम. कोई भी ठीक-सा दे दीजिए… आपको तो पता ही होगा…’’ बोलते-बोलते वो ठिठक गया.
मैंने अपना वाला ब्रांड उसे एक काले पॉलिथिन में लपेट कर दे दिया. उसकी आंखों में अब भी सवाल था. कितना आकर्षक चेहरा था उसका. वह जाने को मुड़ा, पर कुछ सोचकर पलट आया,‘‘मैडम, वो आपके पास कुछ मेडिसिन भी हैं क्या? इसके लिए, मतलब, आराम पहुंचाने वाली कोई दवा?’’ वह जल्दी-जल्दी बोल रहा था. शायद ज़िंदगी में पहली बार वह किसी के लिए यह काम कर रहा था. मेरा पूछने का मन हुआ कि दिक़्क़त क्या है, पेट दर्द? बुख़ार या बदहज़मी?’’
बिना पूछे मैंने उसे गाइनी द्वारा अक्सर सुझाई जाने वाली दवा पकड़ा दी. वह दुकान से बाहर निकलने ही वाला था कि बारिश होने लगी. एकदम ज़ोर से. यहां की ख़ासियत थी, पल में धूप, पल में बारिश. वह रुक गया. यहां रहने वालों को पता है, किसी भी मौसम में बिना छाता लिए नहीं जाते. टूरिस्ट को दिक़्क़त होती है. वह दरवाज़े के पास टेक लगा कर खड़ा हो गया.
मैं अमूमन अपरिचितों से बात नहीं करती. पर वह अपरिचित कहां था? उसे तो शायद रोक कर मैं बात करना चाहती थी. मुंह से निकल गया,‘‘आप अंदर आ कर कुर्सी पर बैठ जाइए. बारिश रुक जाएगी दसेक मिनट में.’’
उसे शायद मेरे यह कहने का इंतज़ार था. बबलू अपने समय से चाय ले कर आ गया. भीगा-भागा-सा बारह साल का बबलू. गर्मी-बारिश उसे परेशान नहीं करती. हर दिन ठीक बारह बजे और शाम चार बजे चाय ले कर आता है, बड़ी वाली केतली में. बबलू ने मुझे गर्म चाय का ग्लास पकड़ाया, मैंने अपना ग्लास उसकी तरफ़ बढ़ा दिया.
फिर वही संकोच. मैंने धीरे से कहा,‘‘ले लीजिए. बबलू की चाय अच्छी होती है.’’
बबलू ने इधर-उधर देखा, फिर मेरे हाथ में दूसरा कप पकड़ा कर जल्दी से दुकान से बाहर निकल गया.
‘‘अच्छी है…’’ लगा, जैसे बहुत पास आ कर कहा हो किसी ने.
वह वहीं बैठा था, मुझे तीन फ़ीट दूर. अबकि नज़र उसकी नीली शर्ट पर पड़ी. चैक वाली नीली शर्ट. नोट किया कि चेहरे पर अजीब क़िस्म की मासूमियत भी है.
बात करने की इतनी बेसब्री पहले कभी नहीं हुई थी.
‘‘घूमने आए हैं?’’ कितना बेतुका सवाल!
वह रुक गया,‘‘हां, हनीमून पर…’’ उसे भी लगा कि शायद उसे यह बताने की ज़रूरत नहीं थी,‘‘दरअस्ल, मुझे छुट्टियां ज़्यादा नहीं मिलीं. इसलिए यहीं आ पाए. चार दिन के लिए… सुना है कि अच्छी जगह है.’’
‘‘आप कहीं गए नहीं?’’
‘‘कल ही पहुंचे थे, शाम को. वाइफ़ की तबियत ख़राब हो गई…’’
सन्नाटा. मिनटभर में पंजे फैलाने लगा. मैं असहज हो गई. हनीमून पर आया है. नई-नई शादी. मेरे मन के उछाह भरने कोई कारण नहीं. अबकि सवाल वहां से आया,‘‘आप कुछ सजेस्ट कीजिए. कहां जाएं आसपास? खाने के लिए कोई अच्छी जगह बताइए ना? मेरी वाइफ़ शायद बहुत दूर नहीं जाना चाहेगी.’’
मैंने दो-चार होटलों के नाम गिनाए. वह ना मुगलई खाना चाहता था, ना चाइनीज़-देसी खानपान. सोचकर बोली,‘‘इस सड़क से नीचे जाइए. पुराने पोस्ट ऑफ़िस के पास. शंकर का ढाबा है. वहां आपको अच्छा खाना मिलेगा. हां, बैठने-बैठने का इंतजाम बस ऐसे ही है. पर जो आपको चाहिए, शायद वो मिल जाए.’’

उसने सिर हिलाया. ग्लास ख़ाली कर ज़मीन पर रखा और खड़ा हो गया. बारिश रुकने-सी लगी थी. वह लगातार बाहर देख रहा था.
फिर वह चला गया. बस जाते-जाते मुझे देख सिर हिला गया.
उसके जाते ही फिर से घनघोर बारिश होने लगी.
दुकान का दरवाज़ा खुला था. सड़क के पार टूरिस्ट बारिश से बचने के लिए घरों के अहाते पर आ खड़े हुए. शाम को इस समय सड़क पर भीड़-सी रहती है. कुछ सालों से खोमचे वाले पूरी सड़क घेरने लगे हैं. लोग खड़े हो कर टिक्की, भेलपूरी, मोमोज़ और चाउमीन खाते हैं.
चेहरा फेर मैंने रजिस्टर में हिसाब लिख दिया. आंखों के आगे बार-बार वो चेहरा आ रहा है.
अचानक रजिस्टर बंद कर मैंने दुकान का शटर गिरा दिया. जल्दी-जल्दी छाता और बैग उठाकर घर पहुंच रही हूं. इससे पहले कि गिरिजा रात का खाना बना दे, पापा को मनाना होगा कि रात को खाने के लिए शंकर के ढाबे में चलते हैं. पापा के बीसियों सवाल होंगे, पर जब मैं कहूंगी कि मुझे तंदूर की ख़ुशबू की याद आ रही है, तो वे फौरन हां कह देंगे. जब से उन्होंने दुकान आना छोड़ा है, मेरा कहना मानने लगे हैं. या यूं कहूं कि जब से मेरा तलाक़ हुआ है, घर वापस लौटी हूं, पापा ने मुझे जीने के लिए नई ज़मीन दी है.
पर इतनी ज़मीन शायद काफ़ी नहीं है. बत्तीस साल की औरत एक शरीर भी रखती है और जाने-अनजाने एहसास भी होता है कि उसकी ज़रूरतें रोटी-कपड़ा-मकान भर नहीं है.

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शंकर का ढाबा घर से बहुत दूर नहीं. वैसे तो इस शहर में बहुत दूर कुछ भी नहीं. पर पापा थक से रहे हैं. मुझे ना जाने क्यों जल्दी हो रही है. कहीं वो आकर ना चला जाए. इस वक़्त बहुत भीड़ रहती है ढाबे में. पापा और मुझे देख कर शंकर खुद उठ कर आ गए हैं, हमारे लिए जगह बना दी है. मेरी निगाहें तेज़ी से संधान में लगी है. छोटा-सा ढाबा अचानक बहुत बड़ा और बिखरा-सा लगने लगा है. नहीं है, ना… दूर-दूर तक नहीं. कहीं आ कर चला तो नहीं गया?
अजीब-सी बेचैनी है, सांसें तेज़ हो रही हैं. पापा पूछ रहे हैं,’’क्या खाओगी बेटा?’’
मैं पता नहीं क्या बुदबुदा रही हूं. वो नहीं आया. नहीं आना था तो पूछा क्यों था?
खाना आ गया है. तंदूरी रोटी, सफ़ेद उड़द की दाल, अरबी की सूखी सब्ज़ी, रायता और पापड़. नहीं खाया जा रहा. बस, ग़ुस्सा-सा आ रहा है. ना जाने किस पर.

खाना खा कर निकले हैं. हमेशा की तरह मैंने पापा से कह कर पान नहीं बंधवाया. चुपचाप चल रही हूं. पापा का हाथ भी नहीं पकड़ा. अंधेरे रास्तों में अकसर वे लड़खड़ा जाते हैं. दिमाग़ सुन्न. मैंने ग़लत राह पकड़ ली है. पापा पीछे से पुकार रहे हैं,’‘बबली, ये कहां को चली?’’
ये रास्ता घर की तरफ़ नहीं जाता. घर कौन कमबख़्त जाना चाहता है. रात को टूरिस्ट माल रोड पर आइसक्रीम खाने आते हैं. पापा पीछे रह गए हैं, मैं हाथ पकड़ की एक तरह से खींचने लगती हूं,’‘पापा, आइसक्रीम खाएंगे, चलिए.’’
पापा हांफने लगे हैं. माल रोड पर पहुंचते ही मेरा उत्साह ठंडा हो गया. ये क्या पागलपन है? वह आदमी यहां हनीमून मनाने आया है. नई-नई शादी है, पत्नी है, मैं क्या कर रही हूं यहां?
पापा को एक सीमेंट की बेंच पर बिठाकर आइसक्रीम ले आई. पापा के लिए वेनिला. पापा अनमने से बोले,‘‘मुझे खांसी हो रखी है, आइसक्रीम खाऊं?’’
जवाब ना दे कर उनके पास बैठ गई. हम दोनों चुपचाप कोन आइसक्रीम खाने लगे. ज़्यादातर टूरिस्ट थे. रंग-बिरंगे कपड़ों में. युवा जोड़े. मस्ती से हाथ में हाथ डाले घूम रहे थे. लड़कियों के चेहरों पर रौनक, लड़कों की आंखों में शरारत. बच्चे शोर करते हुए इधर-उधर जा रहे थे.
आइसक्रीम खाते ही पापा ने कहा,‘‘चलें?’’
मैं उठ खड़ी हुई. अबकि मेरी चाल धीमी थी. पापा का हाथ पकड़ रखा था. पापा ने धीरे-से पूछा,‘‘पान खाएगी?’’
मैंने सिर हिला दिया.
‘‘परेशान है? कोई बात हो गई? दुकान में?’’
‘‘नहीं पापा.’’
पापा के हाथ की पकड़ मज़बूत हो गई. माल रोड से नीचे उतरने-उतरने तक मुड़-मुड़ कर देखती रही. शायद वो नज़र आ जाए.
आगे अंधेरा था. पापा ने मोबाइल का लाइट चला लिया. घर के सामने चाइनीज़ रेस्तरां था. वहां से तेज़ अंग्रेज़ी गाने की आवाज गूंज रही थी. जस्टिन बीबर की चीखती-सी आवाज़. और दिनों में सही लगता है यह शोर-शराबा. आज नहीं.
पापा अचानक लड़खड़ाए, उन्हें संभालते-संभालते रेस्तरां से बाहर आते हुए उस पर नज़र पड़ी, हाथों में हाथ लिए… लंबा–सा घेरदार स्कर्ट पहने अपनी पत्नी के साथ. नज़रें मिली, पर वहां परिचय का कोई भाव नहीं था.
मैं ही देखे जा रही थी. वो दोनों किसी बात पर हंस रहे थे, बिलकुल बगल से निकल गए.
पापा ने आवाज़ दी,’‘बबली, मेरा हाथ पकड़ ले.’’
मैंने कुछ ज़्यादा ही कस कर उनका हाथ पकड़ लिया!

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट, etsy.com

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