क़ैसर-उल ज़ाफ़री की यह शायरी प्रतीकों और विरोधाभासों के साथ ख़ूबसूरती से खेलते हुए सीधे दिल में उतर जाती है.
बस्ती में है वो सन्नाटा जंगल मात लगे
शाम ढले भी घर पहुंचूं तो आधी रात लगे
मुट्ठी बंद किए बैठा हूं कोई देख न ले
के चांद पकड़ने घर से निकला जुगनू हात लगे
तुम से बिछड़े दिल को उजड़े बरसों बीत गए
आंखों का ये हाल है अब तक कल की बात लगे
तुम ने इतने तीर चलाए सब ख़ामोश रहे
हम तड़पे तो दुनिया भर के इल्ज़ामात लगे
खत में दिल की बातें लिखना अच्छी बात नहीं
घर में इतने लोग हैं जाने किसके हात लगे
सावन एक महीने ‘क़ैसर’ आंसू जीवन भर
इन आंखों के आगे बादल बे-औक़ात लगे
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