एक बेरोज़गार मन को बांचती है लोकप्रिय कवयित्री अनामिका की कविता ‘बेरोज़गार’.
किसी कॉलसेंटर के
घचर-पचर-सा रतजगा जीवन
क्या जाने कब बन्द हो जाए!
इन दिनों पढ़ता हूं, बस, पुरातन लिपियां
सिन्धु घाटी सभ्यता की पुरातन लिपि
पढ़ लेता हूं थोड़ी-थोड़ी!
हर भाषा है दर्द की भाषा
जबसे समझने लगा हूं
चाहे जिस भाषा में लिखी हो
मैं बांच सकता हूं चिट्ठी!
अपने अनन्त ख़ालीपन में
यही एक काम किया मैंने
हर तरह के दर्द की डगमग
स्वरलिपियां सीखीं!
मुझमें भी एक आग है
लिखती है तो कुछ-कुछ
हवा के फटे टुकड़े पर
और फिर उसको मचोड़ कर
डालती है सूखी खटिया के नीचे!
ये टुकड़े खोलकर कभी-कभी
मां पढ़ती है
और फिर चश्मे पर जम जाती
है धुन्ध
यही एक बिन्दु है जहां आग मेरी
हो जाती है पानी-पानी
ये मेरे बन्धे हुए हाथ हैं अधीर
ये कुछ करना चाहते हैं
इनमें है अभी बहुत जांगर,
ये पहाड़ खोदकर बहा सकते हैं
दूध की धारा
इनको नहीं होती चिन्ता
कि होगा क्या जो पहाड़ खोदे पे
निकलेगी चुहिया
खुरदुरे और बहुत ठण्डे हैं
ये मेरे बन्धे हुए हाथ
चुनी नहीं इन्होंने झरबेरियां अब तक
बुहारी नहीं कभी झुककर
अपनी धरती की मिठास
आख़िरी कण तक
कभी कोई पैबन्दवाला दुपट्टा
फैला ही नहीं सामने इनके
झरबेरियां मांगता हंसकर
चांद अब उतना पीला भी तो नहीं रहा
उसके पीलेपन पर पर्त पड़ गई है
धूसर-धूसर!
उतनी तो चीकट नहीं होती
चीमड़ से चीमड़ बनिये की बही
अनब्याही दीदी के रूप की तरह
धीरे-धीरे ढल रही धूप
भी उतनी धूसर, उतनी ही थकी हुई
ऐ तितली, बोलो तो
कितना है दूर रास्ता
आख़िरी आह से
एक अनन्त चाह का?
‘चाहिए’ किस चिड़िया का नाम है?
यह कभी यह
तुम्हारे आंगन में उतरी है?
बैठी है हाथों पर?
फिर कैसे कहते हैं लोग
हाथ की एक चिड़िया
झुरमुट की दो चिड़ियों से बेहतर
मलता हुआ हाथ
सोचता हूं अक्सर
क्या मेरे ये हाथ हैं
दो चकमक पत्थर?
Illustration: Pinterest