अच्छी फ़िल्में कभी भी पुरानी नहीं होती. जनवरी 2021 में नेटफ़्लिक्स पर रिलीज़ हुई त्रिभंग ऐसी ही एक फ़िल्म है. विवाह, करियर, महत्वाकांक्षा और पैरेंटिंग के कई आयामों को समेटनेवाली फ़िल्म त्रिभंग आपको क्यों देखनी चाहिए, बता रही हैं लेखिका भारती पंडित.
फ़िल्म: त्रिभंग
ओटीटी प्लैटफ़ॉर्म: नेटफ़्लिक्स
सितारे: काजोल, तन्वी आज़मी, मिथिला पालकर, कुणाल रॉय कपूर, वैभव तत्ववादी, मानव गोहिल और अन्य
डायरेक्टर: रेणुका शहाणे
रन टाइम: 95 मिनट
वो भी क्या दिन थे जब मैं लगभग हर दूसरे रविवार थिएटर में फ़िल्म देखने जाया करती थी. कोरोना फैला और थिएटर एकदम बंद. उसके बाद पूरे लॉकडाउन में और अब तक क्राइम, थ्रिलर और हिंसा से भरी वेब सिरीज़ या इन्हीं चैनल्स की फ़िल्में देखते ही दिन कटे. और सच कहूं तो कोई भी ऐसी नहीं थी जिसके बारे में कुछ लिखने का मन हो. मुझे तो लगा था कि कहीं समीक्षा लिखना छूट ही न जाए,
और फिर हाल ही में रिलीज़ हुई मुख्य धारा की फ़िल्म त्रिभंग. इसे नेटफ़्लिक्स पर रिलीज़ किया गया है क्योंकि थिएटर में तो दर्शक आने से रहे. आज यह फ़िल्म देखी और सच मानिए लगा जैसे बेताब दिल को करार आ गया हो, रेगिस्तान में भटकती मुझ आत्मा को कोई निर्मल निर्झर मिल गया हो. रिश्तों की सच्चाई, गहराई, चयन की ग़लतियां और उसके परिमाणों और उसके बाद के परिणामों को शानदार तरीक़े से दर्शाती है यह फ़िल्म, और वह भी बिना किसी अतिरेकी (सेक्स या हिंसा) दृश्य का प्रयोग किए हुए…
रेणुका शहाणे की लिखी स्क्रिप्ट है और निर्देशित भी उन्हीं ने किया है. जानदार कहानी और शानदार निर्देशन. उनकी प्रतिभा को चार चांद जड़ने वाली फ़िल्म है यह. यहां यह बताना ज़रूरी है कि रेणुका शहाणे नारीवादी हैं यानी फ़ेमिनिस्ट हैं मगर अतिवादी नहीं हैं. यानी फ़ेमिनिस्ट होने का अर्थ स्त्री का अतिरेकी होना और हरेक रिश्ते को दरकिनार करते हुए अपनी मनमर्जी से जीना हरगिज़ नहीं हैं, यह वे बख़ूबी जानती हैं. यहां उनके सभी पात्र स्त्री पात्र हैं और उनके जीवन का एक ग़लत क़दम कैसे दूसरे जीवन को प्रभावित कर सकता है, यह फ़िल्म इसका बख़ूबी चित्रण करती है.
तो कहानी शुरू होती है लेखिका नलिनी आप्टे यानी तन्वी आज़मी जी से जो अपनी आत्मकथा लिख रही हैं और उनका एक विद्यार्थी उनकी मदद कर रहा है. अचानक उन्हें स्ट्रोक होता है और वे अस्पताल में लाई जाती हैं. अनु यानी काजोल उनकी बेटी जो ओड़िशी नृत्यांगना है, फ़िल्म स्टार है और अपनी बेबाकी और बदतमीज़ी के लिए प्रसिद्ध है, अपना शो छोड़कर अस्पताल आती है. फिर सारी कहानी अतीत और वर्तमान के गोते लगाते हुए चलती है. कहानी है एक महत्वाकांक्षी लेखिका की जिसने पारंपरिक परिवार में विवाह किया है और बच्चे भी पैदा हो गए हैं. लेखिका को केवल लेखन करना है, शोहरत पाना है और घर के बाक़ी लोग नाराज़ हैं कि वह सामान्य स्त्री की तरह क्यों नहीं रहती. एक विवाद के बाद लेखिका अपने बच्चों को साथ लिए पति का घर छोड़ देती है और लेखन में अग्रसर हो जाती है. उसके जीवन में अन्य पुरुष आता है जिससे वह विवाह करती है और फिर वही पुरुष उसकी बेटी का शारीरिक शोषण करता है. पति प्रेम में डूबी मां को इसका पता ही नहीं चलता…बच्ची पिता के घर वापस जाना चाहती है मगर दादी स्वर्ग सिधार गई हैं और पिता अब अकेले यह ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहते. बच्चों की ज़िंदगी अनचाहे ही लानत-मलानत से भर जाती है. उन्हें अपने पालकों के ग़लत चुनावों का दंड भुगतना पड़ता है. फिर ऐसा कुछ घटता जाता है कि मां और बच्चों के बीच खाई बन जाती है और बच्चों का मां का संबोधन नलिनी में बदल जाता है. बेटी मां को कभी माफ़ नहीं कर पाती और अपनी शोहरत के शिखर पर खड़ी मां कभी यह समझ नहीं पाती कि उससे क्या भूल हुई.
रिश्तों की ख़ूबसूरती और जटिलता की सैर कराती यह फ़िल्म कभी रुलाती है, कभी खीझ पैदा करती है, कभी मंद मुस्कान लाती है तो कभी अरे यार कहने को मजबूर कर देती है.
मैं भी अपने आप को फ़ेमिनिस्ट कहती हूं पर मेरा हमेशा से यह मत रहा है कि यदि आप चयन की जिम्मेदारी लेना चाहते हैं तो ध्यान रहे, ऐसा करें कि ग़लत चुनाव के परिणाम केवल आपको ही भुगतने पड़े, आपके कारण अन्य ज़िंदगियां खतरे में न आएं. यदि आप प्यार करना चाहते हैं, शादी करना चाहते हैं या कोई भी रिश्ता बनाना चाहते हैं लेकिन उस रिश्ते के साथ जुड़ी ज़िम्मेदारियों को निभाना नहीं चाहते तो उस रिश्ते में मत उलझिए. रिश्ते समर्पण मांगते हैं, देखभाल मांगते हैं और जब आप व्यक्ति के रूप में दूसरे व्यक्ति से जुड़ते हैं तो आपका एक ग़लत क़दम उसकी भी ज़िन्दगी में तूफ़ान ला सकता है.
शादी में यह और भी ज़रूरी हो जाता है चूंकि शादी हमारे समाज में दो व्यक्ति नहीं वरन दो परिवारों का मेल समझी जाती हैं. काजोल इस फ़िल्म में कहती है,‘शादी नहीं करनी चाहिए, हमारे समाज में शादी सामाजिक आतंकवाद है.’ मैं भी इससे एक हद तक सहमत हूं. एक उम्र हो जाने पर शादी करनी ही है, यह भी समाज तय करेगा, शादी किससे करनी है, कब करनी है, कितने बच्चे पैदा करने हैं, बच्चों का लिंग क्या होगा, यह भी समाज और परिवार ही तय करते हैं और मज़े की बात है कि इस सबमें यदि उन दोनों व्यक्तियों के बीच प्यार न भी हो तो स्वीकार्य है मगर प्यार जिससे हो, उससे शादी में ढेरों दिक्क़तें. यानी शादी किसी के साथ मिलकर दैहिक संबंध बनाने और उससे जन्मे बच्चों को वैध सिद्ध करने की सामाजिक स्वीकृति मात्र है. संबंध बनाने में ढेरों ग़लतियां हो जाती हैं और शादी के नाम पर हुई ग़लती में सुधार का या रिश्ते से अलग होने का आसान रास्ता बनाया ही नहीं गया. कितनी ही शादियां जीवन भर बिना प्यार के, बस समझौते के बल पर चलती रहती हैं या यूं कहें झेली जाती हैं और निर्णय की इस ख़ामी को छिपाने के लिए ‘सब ठीक है’ का दिखावा ओढ़ा जाता है.
यह फ़िल्म सीधा सन्देश देती है कि यदि आप प्यार की ज़िम्मेदारियां उठाने को तैयार नहीं हैं तो शादी के रिश्ते में मत उलझिए और यदि आपको अपने आप से ही फुर्सत नहीं है तो बच्चे पैदा मत कीजिए. बड़ों की लड़ाई बच्चों के मन पर भयानक परिणाम डालती हैं और यह आगे जाकर उनके पूरे जीवन को तहस-नहस कर सकती है. हमारे देश में भावनात्मक स्वास्थ्य को कभी भी महत्व नहीं दिया गया, बच्चों को भी बस नासमझ मानते हुए बड़ा किया जाता रहा है मगर मनोविज्ञान कहता है कि युवावस्था में हिंसक और ख़राब व्यवहार या अंतर्मुखी हो जाने के पीछे बचपन की बुरी स्मृतियों का बड़ा योगदान होता है. घर में असफल रिश्ते देखते हुए बड़े हुए या हिंसा का शिकार हुए बच्चे रिश्तों में सहज नहीं हो पाते. इस फ़िल्म में भी अपने माता-पिता के असफल रिश्तों के चलते अनु यानी काजोल का शादी और पुरुष दोनों से ही विश्वास उठ जाता है और वह अपनी बेटी माशा यानी मिथिला पालकर को बिना पिता का साया पड़े बड़ा करती है. मगर उसकी बेटी के लिए भी समाज उतना ही निर्मम होता है जितना कि काजोल के लिए था. और अटूट रिश्तों की चाहत मन में लिए बिना पिता के साये में पली अनु की बेटी वापस उसी पारंपरिक परिवार के खांचे में जा उलझती है जहां बहुओं को घूंघट रखना और पोते को जन्म देना ज़रूरी है.
यहां आप सवाल कर सकते हैं कि यदि लेखिका की जगह लेखक केंद्र में होता यानी फ़िल्म नायक प्रधान होती, क्या तब भी आप यहीं कहती? तो मेरा जवाब होगा, हां…क्योंकि आपके घर में कौन कमाएगा और कौन घर की ज़िम्मेदारियां निभाएगा, यह आप सहमति से तय कर सकते हैं मगर फिर उन ज़िम्मेदारियों से मुकरना ग़लत होगा. यहां नायिका को अपनी महत्वाकांक्षाएं ठीक से मालूम थी, वह एक पारंपरिक परिवार में अपनी मर्जी से शादी के लिए राजी हुई जहां पति कमाकर लाता है और घर चलाता है. चयन उसका था, तो परिणाम भी तो उसे ही भोगने होंगे. नायिका ने अपनी मर्जी से बच्चों को जन्म दिया है और अब वह हर उस कर्तव्य से विमुख होना चाहती है जो उसे एक पत्नी और मां होने के नाते निभाना चाहिए. प्रेम, शादी और बच्चे ये तीनों ही रिश्ते दो बांसों पर बंधी रस्सी के जैसे होते हैं. जरा संतुलन बिगड़ा और समूचा जीवन नष्ट हो गया. एक ग़लत निर्णय और एक साथ कई ज़िंदगियां स्वाहा…
अंत में सारी ज़िन्दगी मां से नाराज़ बेटी मां को माफ़ कर देती है और अपनी बेटी से भी माफ़ी मांगती है.
इस फ़िल्म का सबसे सुन्दर हिस्सा है भाई-बहन यानी अनु और रोबिन्द्रो यानी वैभव के बीच के संबंध…वैसे यह होता ही है कि मुश्क़िल रिश्तों में फंसे बच्चे एक-दूसरे के बहुत निकट आ जाते हैं चूंकि प्रेम के अभाव को दोनों मिलकर ही पूरा करना चाहते हैं. दूसरा सुन्दर प्रसंग है अनु के मित्र राघव यानी मानव गोहिल का उसके लिए समर्पण…
अभिनय की बात करें तो हरेक अपनी-अपनी भूमिका में शानदार, कंवलजीत भी थोड़ी देर के लिए आए और अच्छे लगे हैं. तन्वी आज़मी बहुत गरिमामयी और भव्य लगी हैं. बढ़ती उम्र उनमें बेहद निखार ले आई है. काजोल थोड़ा ओवरऐक्ट करती हैं मगर भूमिका के मुताबिक़ वह ठीक लगा है. मिथिला पालकर दोनों को टक्कर देती नज़र आती है. बहुत संभावनाएं हैं उसमें.
फ़िल्म में कोई गीत नहीं, कोई हिंसा नहीं, कोई उन्मादी या अतिरेकी दृश्य नहीं, आप यह फ़िल्म अपने परिवार और बच्चों के साथ बैठकर देख सकते हैं और इसी बहाने उनसे रिश्तों पर बात कर सकते हैं. तो ज़रूर देखिए यह फ़िल्म और इसका सार याद रखिए.
‘आप स्त्री हों या पुरुष, यदि रिश्तों की ज़िम्मेदारी नहीं निभानी है तो रिश्ते में मत उलझिए और यदि पैरेंटिंग की समझ नहीं है तो बच्चे पैदा मत कीजिए. पहले ही दुनिया हिंसा और उन्माद से भरी जा रही है.’
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