किसी को भुलाना कितना मुश्क़िल होता है, ख़ासकर उसे जिसे आपने प्यार किया हो, जिससे आपने प्यार पाया हो. भूल पाने की लड़ाई लड़ रहे हैं कवि आलोक धन्वा.
उसे भूलने की लड़ाई
लड़ता रहता हूं
यह लड़ाई भी
दूसरी कठिन लड़ाइयों जैसी है
दुर्गम पथ जाते हैं उस ओर
उसके साथ गुज़ारे
दिनों के भीतर से
उठती आती है जो प्रतिध्वनि
साथ-साथ जाएगी आजीवन
इस रास्ते पर कोई
बाहरी मदद पहुंच नहीं सकती
उसकी आकस्मिक वापसी की छायाएं
लम्बी होती जाती हैं
चांद-तारों के नीचे
अभिशप्त और निर्जन हों जैसे
एक भुलाई जा रही स्त्री के प्यार
के सारे प्रसंग
उसके वे सभी रंग
जिनमें वह बेसुध
होती थी मेरे साथ
लगातार बिखरते रहते हैं
जैसे पहली बार
आज भी उसी तरह
मैं नहीं उन लोगों में
जो भुला पाते हैं प्यार की गई स्त्री को
और चैन से रहते हैं
उन दिनों मैं
एक अख़बार में कॉलम लिखता था
देर रात गए लिखता रहता था
मेज़ पर
वह कब की सो चुकी होती
अगर वह कभी अचानक जग जाती
मुझे लिखने नहीं देती
सेहत की बात करते हुए
मुझे खींच लेती बिस्तर में
रोशनी गुल करते हुए
आधी नींद में वह बोलती रहती कुछ
कोई आधा वाक्य
कोई आधा शब्द
उसकी आवाज़ धीमी होती जाती
और हम सो जाते
सुबह जब मैं जगता
तो पाता कि
वह मुझे निहार रही है
मैं कहता
तुम मुझे इस तरह क्या देखती हो
इतनी सुबह
देखा तो है रोज़
वह कहती
तुम मुझसे ज़्यादा सुन्दर हो
मैं कहता
यह भी कोई बात हुई
भोर से नम
मेरे छोटे घर में
वह काम करती हुई
किसी ओट में जाती
कभी सामने पड़ जाती
वह जितने दिन मेरे साथ रही
उससे ज़्यादा दिन हो गए
उसे गए!
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