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ओए अफ़लातून
Home बुक क्लब कविताएं

बोलती हुई औरतें: डॉ संगीता झा की कविता

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
March 14, 2023
in कविताएं, बुक क्लब
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Dr-Sangeeta-Jha_Poem
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दुनिया को सबसे ज़्यादा प्यारी लगती हैं आवाज़ें, पर जब यही आवाज़ें अपने हक़ की मांग करने लगें तो चुभने भी लगती हैं. महिला दिवस के महीने यानी मार्च में हरफ़नमौला डॉ संगीता झा पुरुषवादी समाज और मानसिकता को आईना दिखाती एक बेहद सटीक और वाजिब सवाल पूछती कविता ले आई हैं. बोलती हुई औरतें नामक उनकी यह कविता हर औरत को पढ़नी चाहिए और पुरुषों को तो उससे भी ज़्यादा ध्यान से.

कुछ औरतें अब ना बिंदी
लगा बेवक़ूफ़ बनती हैं
ना मांग में सिंदूर भर
अकड़ती हैं
वो अब बोलती हैं
वो चुप नहीं रहतीं
अब तुम चुप ना होना
अपना ये हुनर तुम ना खोना
बोलती हुई औरतें
बड़ी खटकती हैं
सवालों के तीखे जवाब देती
बदले में नुकीले सवाल पूछती
कितनी चुभती हैं ना!

कितनी घुट्टी पढ़ाई गई थी उसे
लाज स्त्री का गहना है
पति परमेश्वर है
बिना मुंह खोले
सब जुर्म सहना है
आपकी इस सीख को मुंह चिढ़ाती
तमाम खोखले आदर्शों के
बंधनों को ठुकराती
घूरती हुई नज़रों से नज़रें भिड़ाती
कितनी बुरी लगतीं हैं ना औरतें!

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सदियों से सबको आदत है
एक झुकी हुई गर्दन
माथे पर बिंदी
मांग में सिंदूर का बंधन
जिसके क़दमों की एक निश्चित सीमा
सर हिले हमेशा सहमति में
जो रानी हो अपनी रसोई की
उसके फ़ैसले के अधिकार की सीमा
सीमित हो अपने राज्य यानी महज़ रसोई तक
अब जब यत्र नार्यस्तु पुज्ययंते के उदघोषण को नकार
वो तलाश रही है अपना वजूद
तो ना जाने क्यों लोगों को
खटक रहा है उसका आत्मविश्वास
खोज रहे हैं लोग तरीक़े
उसे ध्वस्त करने के

हर क़ामयाब स्त्री आज भी पुरुषों की नज़र में
समझौते के बिस्तर से आए
व्यभिचार का प्रतीक है
हर लिपस्टिक लगा अपने विचार
रखने वाली महिला चरित्रहीन
और हर अभिनेत्री वेश्या
जीन्स तो चालू वाली ही
पहनती है
और अगर शॉर्ट्स पहने तो
रेट्स भी मालूम हैं उन्हें
ना केवल बनाती है रसोई में पराठे
साथ है वो जानती है खेलना कराटे
जो ना केवल जीना जानती है
ख़ुद को ख़ुद का मालिक मानती है
सवाल पूछती है
है कोई उपाय इस सवाल पूछती औरत को चुप कराने का?

घसीटो इन्हें चरित्र की अदालत में
जहां सारे नियम, सभी क़ानून
हैं पुरुषों के, पुरुषों द्वारा
जिसकी आड़ में छुप जाएंगी
मर्दों की तमाम ऐय्याशियां, नाइंसाफ़ियां
जो हमेशा हक़ रही हैं मर्दों का

आवाज़ उठाती औरतों
अब जब सीख ही रही हो बोलना
तो रुकना नहीं कभी
पड़े ज़रूरत तो चीखना भी
लेकिन ख़ामोश न होना
तुम्हारी खामोशी ही
बेड़ी है तुम्हारे पैरों की
जो रोक रही है तुम्हें आगे बढ़ने से
बोलती हुई औरतों, बोलती ही रहना हमेशा… तुम

Illustration: Pinterest

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डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ [email protected]

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