• होम पेज
  • टीम अफ़लातून
No Result
View All Result
डोनेट
ओए अफ़लातून
  • सुर्ख़ियों में
    • ख़बरें
    • चेहरे
    • नज़रिया
  • हेल्थ
    • डायट
    • फ़िटनेस
    • मेंटल हेल्थ
  • रिलेशनशिप
    • पैरेंटिंग
    • प्यार-परिवार
    • एक्सपर्ट सलाह
  • बुक क्लब
    • क्लासिक कहानियां
    • नई कहानियां
    • कविताएं
    • समीक्षा
  • लाइफ़स्टाइल
    • करियर-मनी
    • ट्रैवल
    • होम डेकोर-अप्लाएंसेस
    • धर्म
  • ज़ायका
    • रेसिपी
    • फ़ूड प्लस
    • न्यूज़-रिव्यूज़
  • ओए हीरो
    • मुलाक़ात
    • शख़्सियत
    • मेरी डायरी
  • ब्यूटी
    • हेयर-स्किन
    • मेकअप मंत्र
    • ब्यूटी न्यूज़
  • फ़ैशन
    • न्यू ट्रेंड्स
    • स्टाइल टिप्स
    • फ़ैशन न्यूज़
  • ओए एंटरटेन्मेंट
    • न्यूज़
    • रिव्यूज़
    • इंटरव्यूज़
    • फ़ीचर
  • वीडियो-पॉडकास्ट
  • लेखक
ओए अफ़लातून
Home ओए हीरो

किताबें पाठक को ध्यान में रखते हुए प्रकाशित की जाएं तो वे ज़रूर बिकती हैं: जीतेन्द्र पात्रो

शिल्पा शर्मा by शिल्पा शर्मा
September 29, 2021
in ओए हीरो, मुलाक़ात
A A
किताबें पाठक को ध्यान में रखते हुए प्रकाशित की जाएं तो वे ज़रूर बिकती हैं: जीतेन्द्र पात्रो
Share on FacebookShare on Twitter

वर्ष 2019 में अपने गठन से लेकर अब तक यानी दो वर्षों में प्रलेक प्रकाशन हिंदी साहित्य के पटल पर अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज की है. जब बात हिंदी वाले लोगों की हो तो इतने कम समय में उभरकर आनेवाले इस प्रकाशन के प्रकाशक से बात करना तो बनता ही था. तो आइए, हिंदी वाले लोग में आज मिलते हैं, प्रलेक प्रकाशन समूह के अध्यक्ष जीतेन्द्र पात्रो से.

वे हिंदी पृष्ठभूमि से नहीं है, बल्कि ओडिशा राज्य से हैं, पर उन्होंने हिंदी में एमए किया है; वे हिंदी प्रकाशन क्षेत्र से भी नहीं हैं, बल्कि मूलरूप से इन्वेस्टमेंट बैंकर हैं, पर किताबों के प्रकाशन के क्षेत्र में आ गए और यदि ये दोनों ही बातें उनके बारे में आपकी दिलचस्पी को आसमान छूने नहीं दे रही हैं तो आपको बता दें कि अपनी स्थापना के दो वर्षों के भीतर ही प्रलेक प्रकाशन समूह से वे लगभग 750 किताबें प्रकाशित कर चुके हैं. तो आइए, जीतेन्द्र पात्रो से करते हैं मुलाक़ात और जानते हैं कि वे कैसा पाते हैं हिंदी को, हिंदी के लेखकों, प्रकाशकों और हिंदी के बाज़ार को.

जीतेन्द्र जी सबसे पहले तो आप हमें अपने बारे में बताएं और ये भी बताएं कि कैसे एक इन्वेस्टमेंट बैंकर को किताबों का प्रकाशक बनने का ख़्याल आया और किस तरह आपने इस दिशा में आगे क़दम बढ़ाए?
मैं ओडिशा का रहनेवाला हूं और मुंबई में पला-बढ़ा हूं. मेरी प्राइमरी एजुकेशन से लेकर पोस्ट ग्रैजुएशन तक सबकुछ मुंबई में हुआ है. मैं एक इन्वेस्टमेंट बैंकर हूं, जिसे हमेशा से ही किताबें पढ़ने का बड़ा शौक़ था, अब भी है. किताबों की ओर मेरा लगाव तब और भी बढ़ गया जब मेरी नौकरी के सिलसिले में मेरी पोस्टिंग दिल्ली में हुई. वहां मैं क़रीब छह-सात साल तक रहा, वहां पुस्तक मेले में जाना-आना लगा रहता था. मैं सभी बड़े प्रकाशकों से मिलता रहता था, उन्हें अच्छी तरह जानता भी हूं. मैं बहुत किताबें ख़रीदता रहता था. अच्छा, मेरी प्राइमरी स्कूलिंग हिंदी मीडियम से हुई है. विले पार्ले के बृजमोहन लक्ष्मीनारायण रुइया स्कूल से, जहां से चित्रा मुद्गल जी ने भी अपनी प्राइमरी पढ़ी थी. वहां पर हिंदी का प्रभाव रहता ही था सभी बच्चों पर. यही वजह है कि ओडिशा का होने के बावजूद मेरी हिंदी की लय कभी भटकती नहीं है, टोन भी हिंदी वाला ही है.

इन्हें भीपढ़ें

जानिए, कौन है वो शख़्सियत जिसके चलते हम मनाते हैं फ़ादर्स डे

जानिए, कौन है वो शख़्सियत जिसके चलते हम मनाते हैं फ़ादर्स डे

June 16, 2024
राम ने जब रोटी खाई तो क्यों हुई मेरी पिटाई?

राम ने जब रोटी खाई तो क्यों हुई मेरी पिटाई?

January 24, 2024
‘‘अब मेडिकल साइंस ने इतनी तरक़्क़ी कर ली है कि बिना ज़्यादा तकलीफ़ झेले, लोग कैंसर से उबर आते हैं.’’

‘‘अब मेडिकल साइंस ने इतनी तरक़्क़ी कर ली है कि बिना ज़्यादा तकलीफ़ झेले, लोग कैंसर से उबर आते हैं.’’

December 27, 2023
मैं नास्तिक क्यों हूं: भगत सिंह

मैं नास्तिक क्यों हूं: भगत सिंह

September 28, 2023

बतौर इन्वेस्टमेंट बैंकर हमें कंपिनयों की प्रोफ़ाइलिंग करनी होती थी. यह देखते हुए कि उन कंपनियों के बिज़नेस को कैसे आगे बढ़ाना है. वर्ष 2017 में एक-दो बड़े डील करने के बाद अचानक मैंने नौकरी छोड़ी और अपनी ख़ुद की कंपनी बनाई- जेबीपी कॉर्पोरेट सर्विसेज़ प्राइवेट लिमिटेड. यह कंपनी काफ़ी अच्छी चल रही है, यही वजह है कि प्रकाशन के क्षेत्र में भी मैंने बहुत जल्दी जगह बनाई. यह पांच अगस्त वर्ष 2018 की बात है, एक बड़े ब्यूरोक्रेट, जो मुंबई के कमिश्नर रहे थे वीरेन्द्र ओझा, जिन्हें मैं अपना साहित्यिक गुरु मानता हूं, उनकी पुस्तक का लोकार्पण था इलाहबाद में. उसमें मुझे निमंत्रित किया गया था. मैंने वहां अपने स्कूल के शिक्षक विवेक सिंह सर को वहां बुला लिया था. उस किताब के लोकार्पण में बड़े-बड़े लोग और मंत्रीगण आए थे. मुझे एक आलीशना गेस्ट हाउस में ठहराया गया था. मेरे शिक्षक उस कार्यक्रम को देखकर बड़े ख़ुश हुए. और हमारी बातचीत के दौरान उनका एक इमोशन सामने आया कि काश उनकी किताब भी कोई प्रकाशित करे और इस तरह का लोकार्पण हो. बस, वहीं से प्रकाशन के क्षेत्र में आने की रूपरेखा बन गई. मैंने अपने शिक्षक से कहा कि मैं आपकी किताब प्रकाशित करूंगा. तो वे मुस्कुराकर बाले कि इस क्षेत्र में तुम्हें क्या आता है? सचमुच मुझे इस क्षेत्र में तब कुछ नहीं आता था. अपने प्रकाशन की शुरुआती तीन किताबें जो मेरे पास रखी हैं, वो जेबीपी पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड की हैं. तो सबसे पहले अपने शिक्षक की उन तीन किताबों का लोकार्पण कराया था हमने मार्च 2019 में. इस तरह प्रकाशक के रूप में एक छोटी-सी पहचान बनी.

प्रलेक प्रकाशन समूह को आपने किस वर्ष में गठित किया और आप किस उद्देश्य के साथ इसे लेकर आगे बढ़ रहे हैं?
इस बीच जब नवंबर 2019 में जानेमाने कवि अशोक चक्रधर जी की नज़र मुझपर पड़ी तो उन्होंने प्रलेक प्रकाशन की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी. प्रलेक प्रकाशन मेरे नाम पर रजिस्टर्ड कंपनी है, मैं इसका मालिक हूं, पर गुरुदेव ने मुझे अपना स्नेह और आशीर्वाद दिया कि इस नाम का इस्तेमाल करो, पर एक शर्त थी कि मैं उनके नाम के सहारे आगे नहीं बढ़ूंगा, मुझे अपनी मेहनत से आगे बढ़ना होगा. तो मैंने प्रलेक के किसी भी प्रमोशन में अपने गुरुदेव के नाम का सहारा नहीं लिया, क्योंकि मैंने उनसे वायदा किया था, मुझे उसे निभाना ही था. सोच ये थी कि यदि जीवन है तो आपको इतिहास के पन्नों पर आना है, आपको इस धरा का कर्ज़ अदा कर के ही जाना है. आप जब दुनिया को छोड़कर जाएं तो कोई एक ऐसी अमिट निशानी छोड़ जाएं कि आपके न रहने के बाद भी लोग आपको उस नाम से याद करें. वही हो रहा है कि आज की तारीख़ में मुझे प्रलेक के नाम से जाना जाता है. जीतेन्द्र पात्रो का नाम आता है तो प्रलेक का भी आता है, इसका उलट भी उतना ही सही है. मुझे यही इतिहास बनाना था. मैं पारदर्शिता के साथ बिज़नेस करता हूं और जो कंपनियों को बनाने का मेरा स्किल है, मैंने उसका उपयोग करते हुए प्रलेक को खड़ा किया. मैं प्रकाशक की भूमिका में ख़ुद को हिंदी समेत सभी भाषाओं का सेवक मानता हूं. हम हिंदी के साथ-साथ कई और भाषाओं पर भी काम कर रहे हैं तो इस लिहाज से आप मुझे साहित्य का सेवक भी कह सकते हैं.

इतने कम समय में आपके प्रकाशन समूह से कई किताबें आ गईं हैं तो इतनी त्वरित गति से कैसे काम कर रहे हैं आप?
इस समय हमारे पास प्रलेक प्रकाशन समूह की बात करूं, जिसमें मेरी मुख्य कंपनी जेबीपी पब्लिकेशन और रेड फ़ॉक्स लिटरेचर व प्रलेक उड़िया भी आता है तो हमने कई भाषाओं में काम किया है तो इस वक़्त हमारे पास 3000 पांडुलिपियां मौजूद हैं. पिछले महीने हुए हमारे प्रलेक प्रकाशन के एजीएम के मुताबिक़, हम लोग 1400 किताबों पर काम कर चुके हैं. अक्टूबर माह तक हम 750 से 800 किताबों का प्रकाशन कर चुके होंगे.
बात तेज़ गति की करूं तो जब आपको इतिहास बनाना होता है तो आप कुछ सोच कर आए होते हैं. जब मैं सात वर्षों तक दिल्ली में रहा था, तब मैंने प्रकाशन के क्षेत्र में रिसर्च की थी. पब्लिशर बनने के बाद मैंने हिंदी में एमए भी किया, ताकि मैं हिंदी साहित्य को समझ सकूं. देखिए दो चीज़ें होती हैं या तो आप भीड़ में खो जाइए या फिर सामने आइए. सामने आने का मतलब किसी से युद्ध करना नहीं है, इसका मतलब सिर्फ़ ये है कि जो रणनीति इस क्षेत्र में बड़े लोग अपना रहे हैं, उसके सामने अपनी रणनीति को कुशलता से प्रस्तुत कीजिए और लीड फ्रॉम द फ्रंट की क्वालिटी लाइए. यही बात साहित्य जगत के लिए भी सही है.
पिछले वर्ष कोविड के चलते लॉकडाउन था, लेकिन मेरे कुछ संपर्क हैं, जिन्होंने मेरे लिए पास की व्यवस्था की, तो मैंने बहुत ट्रैवल किया. दुनिया घरों में बंद थी और मैं काम के साथ-साथ ट्रैवल करता रहा. चूंकि मुझे आगे आना था. जब दुनिया सो रही होती है, तब यदि आप अपना काम कर लें तो आप मान के चलिए कि जब दुनिया काम करने आती है तो आपको देखकर हैरान हो जाती है.

जिस समय मैं इस क्षेत्र में कुछ नहीं था, तब मुझसे चित्रा मुद्गल जुड़ीं, गीताश्री जुड़ीं, अशोक चक्रधर का आशीर्वाद रहा, केसर ख़ालिद साहब को कैसे भूल सकता हूं, उन्होंने अशोक जी से मेरी मुलाक़ात कराई थी. कवि, ग़ज़लकार सौरव तिवारी, जो 1993 बैच के आइएएस अधिकारी हैं, उनकी मुझे प्रकाशन बनाने में बड़ी भूमिका रही है. उनकी किताब का लोकार्पण अमिताभ बच्चन ने किया था. इसके साथ-साथ राकेश कुमार पालीवाल, जो प्रिंसिपल चीफ़ कमिश्नर, इन्कम टैक्स थे, उनका भी बड़ा रोल रहा है. महेश दर्पण, बलराम और जयनंदन जी के मार्गदर्शन के बिना यहां तक न पहुंच पाता. डॉ चंद्रप्रभा सारस्वत, बिमला व्यास जैसे लोगों ने मुझे सिखाया है कि एक प्रकाशक की गरिमा क्या होती है. कहने का मतलब ये कि ये सफलता मेरे अकेले की नहीं है, इन सबकी है, जो शुरुआती दौर में मुझसे जुड़े. मुझे बहुत आगे लाने में दो-तीन नाम और गिनाना चाहूंगा, तेजेन्द्र शर्मा, यूके से, जिन्होंने मुझे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पहुंचा दिया. जब उन्होंने मुझे अपनी किताब देने का वादा किया, तब मुझे लगा कि मैं बड़े लेखकों को भी प्रकाशित कर सकता हूं. करुणा शंकर उपाध्याय, जिनके मार्गदर्शन में मैंने हिंदी में एमए किया, जो मुंबई विश्वविद्यालय में हिंदी के एचओडी हैं. चित्रा मुद्गल ने मुझे तब अपनी किताब दी, जब लोग मुझे जानते भी नहीं थे. एक ख्यातनाम लेखक की किताब आने से एक अनाम-सा प्रकाशन भी अपने आप में ब्रैंड बन जाता है. प्रतिभा रॉय ओडिशा की बड़ी लेखिका हैं उनका, राजेन्द्र मिश्र का भी योगदान रहा. मैं अपने हर दिन की शुरुआत एक शून्य से करता हूं और देखता हूं कि आज क्या कर सकता हूं.

अमूमन प्रकाशक कहते हैं कि हिंदी की किताबों का मार्केट उतना अच्छा नहीं है, पर आपने तो कई हिंदी की किताबों का प्रकाशन किया है, क्या आप भी इस बात से इत्तफ़ाक रखते हैं या आपका अनुभव कुछ अलग है?
मैं दो-तीन चीज़ें कहना चाहता हूं: हां, हिंदी की किताबें नहीं बिकती हैं… पर हां, हिंदी की उन लेखकों की किताबें बिकती हैं, जो नया लिखते हैं! जो नई बात करते हैं. हिंदी की किताबें न बिकने का कारण लेखक वर्ग और प्रकाशकों के बीच ही छुपा है. हमारे यहां से प्रकाशित किताबें बिकती हैं. मैंने तो लॉकडाउन में भी लेखकों को रॉयल्टी दी है. हिंदी की किताबें क्यों नहीं बिकतीं इस पर बात करूं तो लेखक जब नया लिखता है तो किताबें बिकती हैं, लेकिन जब लेखक अपनी चार किताबों में से छपे हुए दो-दो टुकड़े उठकार नई किताब बना दे और नया प्रकाशक उस लेखक को अपने कैटलॉग में रखने के लिए उस पुरानी किताब को नए तरीक़े से छाप दे तो ये एक बार, दो बार चल जाएगा, लेकिन पाठक जो होता है, वो बड़ा मैच्योर होता है. वो समझता है तो ऐसी चीज़ें नहीं बिकतीं और दूसरी बात ये कि लेखकों और प्रकाशकों को चाहिए कि वे एक-दूसरे के साथ तालमेल रखें. प्रकाशकों को भी लेखकों से नई चीज़ मांगने की ज़िद करनी चाहिए. ये नहीं कि मैं आपको छापना चाहता हूं तो जो देना हो आप दे दो. इस तरह तो आप हिंदी की बिज़नेस इंडस्ट्री को ख़राब कर रहे हैं.
और हां, हिंदी के बाज़ार को ख़राब करने का काम पुस्कालयों यानी लाइब्रेरीज़ के ज़रिए किया गया है. इन्होंने बड़े-बड़े प्रकाशकों की 200 पन्नों की किताबों को हज़ार-हज़ार रुपए में ख़रीदा है, क्योंकि भ्रष्टाचार है. जो किताब भारत में 150 रुपए में नहीं बिकती, वो हम विदेशों में यूएसए और कैनेडा में तीस-बत्तीस डालर तक में बेचते हैं, क्योंकि वहां का पाठक वर्ग पढ़ना चाहता है. तो लाइब्रेरीज़ का इस तरह का व्यापारीकरण बंद होना चाहिए.
साथ ही, लेखकों को भी अपना ब्रैंड ख़ुद बनाना होता है. हां, कुछ नए लेखक अपने आप में ब्रैंड हैं: दिव्य प्रकाश दुबे, सत्या व्यास, नीलोत्पल मृणाल, भगवंत अनमोल, जयंती रंगनाथन, रजनी मोरवाल, मनीषा कुलश्रेष्ठ, गीता श्री, विजयश्री तनवीर, मधु चतुर्वेदी, योगिता यादव, रश्मि भारद्वाज… ये लोग कुछ नया देते हैं तो इनकी किताबें धड़ाधड़ बिकती हैं. पुराने लेखकों में चित्रा मुद्गल, ऊषा किरण ख़ान, मृदुला गर्ग, प्रतिभा रॉय वगैरह… आज भी इनकी किताबों को ख़ूब पढ़ा जाता है तो मैं कैसे कहूं कि नहीं बिकतीं हिंदी की किताबें? यदि आप किताबों को पाठक को ध्यान में रखते हुए प्रकाशित करते हैं तो वे ज़रूर बिकती हैं! हां, ये सच है कि केवल सही चीज़ें बिकती हैं, क्योंकि पाठक जो हैं, वो लेखकों से ज़्यादा मैच्योर हैं.

और यह भी एक सच है कि किताबें बिकती हैं तो लेखकों को रॉयल्टी मिलती है, नहीं बिकतीं तो नहीं मिलती. लेखकों का भी फ़र्ज़ होता है कि अपनी किताब के प्रमोशन में प्रकाशक की मदद करें, बिल्कुल उसी तरह, जैसा कि फ़िल्मों के लिए ऐक्टर्स करते हैं. मैं कई ऐसे लेखकों के संपर्क में आया हूं, जिन्हें जब मैंने कहा कि आपको प्रमोशन करना होगा तो उन्होंने मुझे डांट दिया, कहा कि प्रकाशक तुम हो तो इन किताबों को बेचना तुम्हारा काम है, हमारा नहीं. मैंने उन लेखकों की किताब छापी ही नहीं, क्योंकि लेखकों की ख़ुशामद कर के किताब छापने वाल प्रकाशक मैं नहीं हूं. मेरे हिसाब से तो किताबों के प्रमोशन में लेखकों का बहुत बड़ा रोल होना चाहिए. लेखक ने लिखा, पब्लिशर ने पैसा लगा के प्रकाशित किया तो प्रमोशन में दोनों को हाथ बंटाना ही चाहिए.

आप किताबों के अलावा हिंदी के लिए ऑडियो प्लैटफ़ॉर्म्स, वेब सीरीज़ वगैरह को क्या हिंदी के विस्तार के तौर पर देखते हैं? क्या आपको लगता है कि इनके होने से हिंदी की किताबों का बाज़ार संपन्न हुआ है?
बिल्कुल ये हिंदी का विस्तार ही हैं और इनकी वजह से हिंदी का बाज़ार संपन्न हुआ है. लॉकडाउन में लोगों के पास मनोरंजन के लिए ओटीटी प्लैटफ़ॉर्म्स ही थे, इनके लिए भी तो हिंदी में ही लिखा गया न! लॉकडाउन के दौरान लोगों ने पढ़ा भी ख़ूब है. इन प्लैटफ़ॉर्म्स के ज़रिए युवाओं को जगह मिली है. ओटीटी प्लैटफ़ॉर्म पर यदि आप जाएं तो पाएंगे कि 1950 में लिखी गई किताब पर भी वेब सीरीज़ बन रही है. पुराने साहित्य पर, अच्छे साहित्य पर अब भी लोग काम करते हैं. सीधा हिसाब है कि आप अच्छा लिखिए और आप हर प्लैटफ़ॉर्म पर हिट होंगे. इनोवेटिव होंगे तो आप कहीं भी छा सकते हैं. इन डिजिटल माध्यमों ने हिंदी की रीच बनाई और बढ़ाई है. पर मेरा मानना ये है कि हिंदी जैसे विश्व की सबसे सुंदर भाषा को अच्छी तरह समझने, ज़हन में उतारने के लिए हिंदी की किताबों का कोई मुक़ाबला नहीं कर सकता.

हिंदी में किस तरह की किताबें अच्छा करती हैं- कथा, कहानियां, उपन्यास, ऐतिहासिक कहानियां या फिर तथ्यों पर आधारित वास्तविक मुद्दों पर लिखी गई किताबें? बतौर प्रकाशक आप हिंदी के लेखकों से किस तरह की किताबें लाने/लिखने की उम्मीद रखते हैं?
मैं अगर रीडर की तरह कहूं तो मुझे रिऐलिटी पढ़ना पसंद है. मुझे स्कूल के दिनों में अपने आसपास के माहौल से जुड़ी या हमारे स्कूल में सूर्यबाला जी आती थीं, अपनी मां और पिता,जो सूट-टाइ पहनकर ऑफ़िस जाते थे तो उस समय उस परिवेश की घरेलू सी कहानियां पसंद आती थीं. मोबाइल का ज़माना आया तो मोबाइल इनोवेशन की कहानियां बननी शुरू हुईं. वर्ष 2008 के आसपास उसी परिवेश की कहानियां और वास्तविक हो गईं, आतंकवादी हमला हुआ तो वैसी हो गईं और ये पाठक को पसंद आने लगा. अब बतौर प्रकाशक कहूं तो जो चीज़ें वास्तविक होती हैं, वो मार्केट को कैच करती हैं. कहानियां और उपन्यास भी अच्छे बिकते हैं, पर ऐतिहासिक चीज़ें ज़्यादा बिकती हैं और उससे भी ज़्यादा बिकती है रिऐलिटी. जो किताबें बड़े क्षितिज को छूती हैं, आत्म-केंद्रित नहीं होतीं, मैं की जगह हम और तुम यानी पूरे समाज के बारे में बात करती हैं, वे पसंद की जाती हैं. रिऐलिटी लिखने वाले लेखक को ही आगे हिंदी समृद्ध बनाएगी.

आनेवाले पांच वर्षों में आप हिंदी और हिंदी की किताबों को कहां पहुंचता हुआ देखते हैं? प्रलेक प्रकाशन को कहां पहुंचता हुआ देखते हैं?
हाल ही में प्रलेक प्रकाशन ने पारमिता शतपथी की किताब अभिप्रेत काल को उड़िया से हिंदी में प्रकाशित किया गया है, जिसे उड़ीसा के सर्वोच्च सम्मान शारला सम्मान मिला है. यह साहित्य की जीत है. मेरी ये कंपनी 53 साल पुरानी है और आज यदि जो लेखक, प्रकाशक, पाठक या लोग मुझे नहीं जानते हैं यदि आप उनसे कहेंगी कि इस कंपनी को मैंने एक साल में खड़ा किया है तो कोई भरोसा भी नहीं करेगा. मैंने एक साल में अपने 53 वर्ष की कसर को पूरा किया है तो पांच साल में मैं हिंदी की किताबों को वहां पहुंचाना चाहता हूं, जहां पहुंचाने की बात सपने में भी नहीं सोची जा सकती. पर हमें कुछ चीज़ों का ध्यान रखना होगा, पहली तो ये कि हिंदी भारत की अकेली भाषा नहीं है. आपको हिंदी को दूसरी भाषाओं तक लेकर जाना होगा और दूसरी भाषाओं को हिंदी तक पहुंचाना होगा. हम साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ और एनबीटी के बाद अकेले ऐसे प्रकाशन समूह हैं, जो 14 भाषाओं में किताबों को प्रकाशित कर रहे हैं. हम उड़िया, मराठी, तेलगु, तमिल, असमिया, सिंथाली, कश्मीरी भाषा, हरयाणवी, पंजाबी में काम कर रहे हैं. हमारी किताबें स्पैनिश में आ रही हैं, इंग्लिश में आ रही हैं. हम इन भाषाओं को भी सम्मान देते हैं और उनकी अच्छी किताबों को हिंदी में लाने की पहल भी कर रहे हैं. हिंदी की किताबों को उड़िया में और उड़िया की किताबों को हिंदी में तो हम ला ही चुके हैं. जब आप ये करते हैं तो यह भी हिंदी के प्रचार का एक तरीक़ा है. मैं प्रलेक प्रकाशन समूह को पांच वर्ष बाद टॉप फ़ाइव में रखना चाहता हूं. टॉप फ़ाइव में न आ पाए तो भी ग़म नहीं, टॉप 50 में न आ पाए तो भी ग़म नहीं… हमें इतिहास के पन्नों पर प्रलेक प्रकाशन का नाम दर्ज कराना है.

Tags: #Hindi_Wale_Log#HindiWaleLog#हिंदी_वाले_लोग#हिंदीवालेलोगconversationHindi booksHindi MahHindi marketHindi MonthHindi spreadHindi Wale LogInterviewJitendra PatrolibrarymeetingmulaquatPralek Prakashanpublisherwhere will Hindi reachWriterकहां पहुंचेगी हिंदीजीतेन्द्र पात्रोप्रकाशकप्रलेक प्रकाशनबातचीतमुलाक़ातलाइब्रेरीलेखकहिंदी का फैलावहिंदी का बाज़ारहिंदी की किताबेंहिंदी माहहिंदी वाले लोग
शिल्पा शर्मा

शिल्पा शर्मा

पत्रकारिता का लंबा, सघन अनुभव, जिसमें से अधिकांशत: महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर कामकाज. उनके खाते में कविताओं से जुड़े पुरस्कार और कहानियों से जुड़ी पहचान भी शामिल है. ओए अफ़लातून की नींव का रखा जाना उनके विज्ञान में पोस्ट ग्रैजुएशन, पत्रकारिता के अनुभव, दोस्तों के साथ और संवेदनशील मन का अमैल्गमेशन है.

Related Posts

ध्यानसिंह, जो बन गए हॉकी के जादूगर ध्यानचंद
ओए हीरो

ध्यानसिंह, जो बन गए हॉकी के जादूगर ध्यानचंद

September 26, 2023
चौधरी देवीलाल
ओए हीरो

जन्मदिन विशेष: किसानों एवं श्रमिकों के मसीहा और असली जननायक ‘चौधरी देवीलाल’

September 25, 2023
जो मिले, मुरीद हो जाए ऐसी शख़्सियत थे डॉक्टर दीपक आचार्य
ओए हीरो

जो मिले, मुरीद हो जाए ऐसी शख़्सियत थे डॉक्टर दीपक आचार्य

September 19, 2023
Facebook Twitter Instagram Youtube
Oye Aflatoon Logo

हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

संपर्क

ईमेल: oye.aflatoon@gmail.com
फ़ोन: +91 9967974469
+91 9967638520
  • About
  • Privacy Policy
  • Terms

© 2022 Oyeaflatoon - Managed & Powered by Zwantum.

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

- Select Visibility -

    No Result
    View All Result
    • सुर्ख़ियों में
      • ख़बरें
      • चेहरे
      • नज़रिया
    • हेल्थ
      • डायट
      • फ़िटनेस
      • मेंटल हेल्थ
    • रिलेशनशिप
      • पैरेंटिंग
      • प्यार-परिवार
      • एक्सपर्ट सलाह
    • बुक क्लब
      • क्लासिक कहानियां
      • नई कहानियां
      • कविताएं
      • समीक्षा
    • लाइफ़स्टाइल
      • करियर-मनी
      • ट्रैवल
      • होम डेकोर-अप्लाएंसेस
      • धर्म
    • ज़ायका
      • रेसिपी
      • फ़ूड प्लस
      • न्यूज़-रिव्यूज़
    • ओए हीरो
      • मुलाक़ात
      • शख़्सियत
      • मेरी डायरी
    • ब्यूटी
      • हेयर-स्किन
      • मेकअप मंत्र
      • ब्यूटी न्यूज़
    • फ़ैशन
      • न्यू ट्रेंड्स
      • स्टाइल टिप्स
      • फ़ैशन न्यूज़
    • ओए एंटरटेन्मेंट
      • न्यूज़
      • रिव्यूज़
      • इंटरव्यूज़
      • फ़ीचर
    • वीडियो-पॉडकास्ट
    • लेखक

    © 2022 Oyeaflatoon - Managed & Powered by Zwantum.