बुआ-फूफा का 65 साल का साथ था. विवाहित जोड़े का साथ कितना भी लंबा हो, किसी एक तो पहले जाना ही होता है. फूफाजी के जाने के बाद क्या कुछ गुज़री बुआजी पर यह जानिए इस कहानी में.
वैसे तो बुआ शाम सात बजे तक खा लेती थीं पर काज परोजन में केतना नेम पाल सकते हैं. आज फूफा को गए पूरे एक महीने बीत गए. पूरे पैंसठ साल का सुहाग जिया बुआ ने. फूफा बीस के थे और बुआ मुश्किल से सोरह की. मजाल कभी एक दूसरे से अलग हुए हों. एक अस्पताल में होता तो दूसरा उसकी तीमारदारी को. भगवान ने कभी दूनो को एक साथ बेमार भी तो नहीं किया. चार बेटे और उतनी ही बेटियां और सबको देबी मइया ने सुखी जीवन का बरदान दिया. बुआ फूफा एक साथ कभी दिल्ली कभी लखनऊ कभी अहमदाबाद तो कभी बंबई.
मौसम के हिसाब से बेटों के घर घूमते रहते पर बरसात के तीन महीने तो हर हाल में बनारस में ही रहते. रिटायरमेंट के बाद बीएचयू के सामने सुन्नरनगर में एक छोटा-सा बंगला बना लिया और देखभाल के लिए भतीजा टुन्नू और उसकी बहू मुन्नी थे ही. टुनुआ की नौकरी फूफा ही लगाए डीएलडब्लू में. बुआ कहती थीं कि बेटे बहू चाहे जेतना मान दें पर अपना एक मकान तो होना ही चाहिए.
यहीं बनारस में फूफा कार्डियक अरेस्ट में चल बसे. सारे बेटे बहू नाती पोते बेटी दमाद पूरे घर में मनसायन किए थे. पिता के जाने का ग़म तो था पर इस बात से राहत भी थी कि चलो किसी पर बोझ नहीं हुए. चलते फिरते ही चले गए. पर बुआ की जिनगी में तो एक बहुतय भारी सुन्न समा गया था, जिसे भरने के लिए बड़े धूमधाम से फूफा का किरियाकरम करवाया. कहते हैं न कि समय सारे घाव भर देता है पर भरने से पहले घाव को नोच तान कर बिथुरा भी तो देता है!
बुआ भी गाहे ब गाहे भरते घाव की पपड़ी नोच देती थीं और छलछला आए ख़ून को देख दिखा संतोष कर लेती थीं.
तो आज पूरे इकत्तीस दिन हो गए. तब से बेटे तीन बार अपने काम पर जाकर लौट चुके थे और आज तै कर लेना चाहते थे कि बुआ अब किसके घर जाएंगी?
सारे मेहमानों और पुरुषों के खा लेने के बाद चारों बेटियां, चारों बहुएं बुआ के साथ खाने बैठी. शुभ के लिए बढ़िया रोहू मछरी भी बनी थी लेकिन फूफा के श्रीवास्तव खानदान में विधवाओं के लिए सिकार मछरी एकदम प्रतिबंधित.
और बुआ की सबसे बड़ी कमजोरी ठंडे मसाले की सोआ डाली हुई रोहू.
कभी कभी फूफा मजाक में कहते कि बन्नो, (फूफा बुआ को जिनगी भर बन्नो ही बुलाए) जब हम नहीं रहेंगे तब कैसे रोहू खाओगी और बुआ भी मजाकय में बोलतीं कि भइ हम तोहका छोड़ि सकत हैं मुदा रोहू ना छोड़िबो.
छोटकी ने जैसे ही बुआ को रोहू का मूड़ा परोसा कि बड़की जने जोर-से हरकते बोलीं कि ई का दुलहिन ! अम्मा को मछरी जिन दियो. पर तब तक मूड़ा थरिया में लुढ़क एक कोना पकड़ ही लिया. बड़ी बेटी डाक्टर थी. उसने छोटी भाभी को तरेर कर घूरा और थाली हटाने का इशारा किया.
बुआ को याद आ गया. अभी परसाल ही तो जब फूफा बीमार हुए और लगा कि अब नहीं बचेंगे तब एक रात बीएचयू अस्पताल में ही उन्होंने बुआ से कहा था कि देखो बन्नो! अब नहीं लगता कि हम घर वापस जा पाएंगे इसलिए मेरी एक बात मान लो कि मेरे बाद भी तुम रोहू मत छोड़ना और बुआ ने उनका मुंह बंद कर दिया था. पर काल का मुंह कौन बंद कर सका है? फूफा उसके बाद ठीक होकर मजे में घर आए और पूरे ग्यारह महीने एकदम अच्छे से रहे.
बुआ को अस्पताल की बात याद आ गई. छोटी बहू थाली उठाने ही जा रही थी कि बुआ ने थाली पकड़ ली और कहा रहने दो बहू हम यही खा लेंगे और डाक्टर बिटिया की ओर मुखातिब होते सधे शब्दों में कहा कि बड़कऊ को बताइ दो कि हम तुहरे बाबूजी को छोड़ कतहूं न जायंगे और मूड़ा तोड़ कर जैसे ही मुंह में डाला कि उनकी आंखें हरहराकर बरस पड़ीं.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट, fineartamerica.com