वह बच्चे जो कि बहुत छोटे हैं, मेंटली सेंसिटिव हैं या जिनके परिवार में मानसिक रोगों का इतिहास रहा है, उन्हें ऐसी फ़िल्मों, वेब सिरीज़ और प्रोग्राम्स से बचना चाहिए जिनमें सुपर नैचुरल या पैरानॉर्मल ऐक्टिविटीज़ दिखाई जाती हों. क्योंकि जब ऐसे बच्चे ऐसी ऐक्टिविटीज़ देखते हैं तो उनके मस्तिष्क (जो कि सेंसिटिव है) अपनी प्रतिक्रिया देने लगता है. इस बात को तफ़सील से समझा रहे हैं, लेखक-चिकित्सक डॉ अबरार मुल्तानी.
हमारे मासूम बच्चे और डरावनी फ़िल्में
अपनी प्रैक्टिस के दौरान मैं ऐसे कई बच्चों से मैं मिला हूं, जिनके अंदर फ़ोबिया, बिहेवियर प्रॉब्लम, एंग्ज़ाइटी या बाइपोलर पर्सनैलिटी डिसऑर्डर तब शुरू हुआ, जब उन्होंने किसी इच्छाधारी नागिन का टीवी शो देखा या फिर कोई भूतिया फ़िल्म देखी या फिर आत्माओं का या किसी धार्मिक फ़िल्म में किसी शक्तिशाली कैरेक्टर का सुपर नैचुरल रूप वाली फ़िल्म देखी. जब उन्होंने वह देखी तो स्वयं में ही या अपने आसपास ऐसी ही शक्तियों को महसूस करना शुरू कर दिया. अभी कुछ दिनों पहले ही मेरे पास एक बच्चा आया था, जिसकी एब्नार्मेल ऐक्टिविटीज़ ‘कांचना’ फ़िल्म देखकर शुरू हुई थी. कुछ सालों पहले का मुझे एक बच्ची का भी केस याद है, जिसकी एब्नॉर्मल ऐक्टिविटीज़ ’नागिन’ सीरियल देखकर शुरू हुई थी.
जो दिखता है, उसे सच मानने लगते हैं बच्चे
कुछ सेंसटिव बच्चे कोई कहानी सुनते हैं या किसी और का कोई क़िस्सा सुनते हैं तो भी उनका सेंसिटिव ब्रेन उनके अंदर एब्नॉर्मल बिहेवियर शुरू करवा सकता है.
हम अभिभावक चूंकि अपने बच्चों को बहुत सारी बातें नहीं समझाते या उनके बारे में उन्हें पहले से सचेत नहीं करते, जिससे उनका मस्तिष्क उसे अपने पैमाने पर सच्चा और झूठा मानने लगता है. जब उन्हें लगता है कि उनसे बड़ी उम्र का व्यक्ति कोई काम कर रहा है तो वे यह मान लेते हैं कि यह काम सही होगा ही होगा. जब स्क्रीन पर कोई पारंगत ऐक्टर परफ़ेक्ट ऐक्टिंग के साथ एक पैरानॉर्मल या सुपरनैचुरल रोल प्ले करता है, तो बच्चा उसे सच मान लेता है. क्योंकि उसका दिमाग इसी तरह से प्रोग्राम है कि वह बड़ों को जो करते हुए देखता है उसे सच मानता है. बच्चे ही क्या, हम देखते हैं कि कई बड़े भी स्क्रीन पर दिख रही हर एक बात को सच मान लेते हैं.
अगर हम ऐसे सेंसिटिव बच्चों के अभिभावक हैं तो हमें चाहिए कि हम उन्हें ऐसी फ़िल्मों, सीरियल, वेब सिरीज और न्यूज़ से दूर रखें, जिनमें यह सब गतिविधियां दिखाई जाती हैं. हम उन्हें मेंटली स्ट्रॉन्ग बनाने की भी कोशिश करें और उन्हें बताएं कि स्क्रीन पर जो चीज़ दिख रही होती है, वह केवल एक अभिनय मात्र है. वह हमारे मनोरंजन के लिए बनाए जाते हैं. उसका सच्चाई से कोई ज्यादा लेना देना नहीं होता. जब बच्चों को यह बात बता दी जाती है तो उनका ब्रेन फिर उन फ़िल्मों या सीरियल्स पर उस हिसाब से रिऐक्शन देता है.
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