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चमक: राजुल अशोक की कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
October 26, 2021
in नई कहानियां, बुक क्लब
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चमक: राजुल अशोक की कहानी
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कई बार हम केवल आसपास की चीज़ों को ग़ौर से देखभर लेने पर स्वप्रेरणा से इतना कुछ कर जाते हैं. और कई बार जिनके पास कुछ भी नहीं होता, उनकी जिजीविषा हमें जीवन के बारे में कितना कुछ सिखा जाती है कि हमारी आंखों में सकारात्मकता की चमक आ जाती है. ऐसी चमक बनी रहना चाहिए, क्योंकि ये जीवन को आशा से भर देती है.

सुबह की सैर का अपना अलग ही आनंद होता है, ठंडी हवा के झोंको के बीच नींद से जागते शहर से मिलना हो जाता है,दूध वालों की साइकिल की आवाज़, पक्षियों का कलरव, इक्का-दुक्का गुज़रते वाहन सब के साथ सुबह का संगीत एक बार सुन लो तो पूरा दिन ताज़ा रहता है, वरना फ़्लैटों की बंद दुनिया में सुबह भी बड़े संकोच से आती है और चाय के बर्तनों के इर्द गिर्द मंडराकर कुछ देर में ऊब कर चली जाती है. बाहर निकलो तो सुबह बड़े तपाक से गले मिलती है. अब इस तिकोने पार्क को ही देखो, घर से कुछ क़दम दूर बना ये पार्क अपने तीनों कोनो के साथ सुबह की रौनक समेट कर जिस आत्मीयता से मुस्कुराता है, उसे देखकर सारे दिन की ऊर्जा मिल जाती है और फिर यहां सैर अकेले नहीं करनी पड़ती, लोगों के अलावा, हर पेड़ से सूरज झांककर देखता है, कुछ चिड़ियां फुदकते हुए आगे-आगे चलती हैं. और पार्क में लगे कनेर, हरसिंगार, नीम जैसे कई दूसरे पेड़ों का स्पर्श भी सुबह के साथ महसूस होता है. बीच में बने पॉन्ड में तैरती मछलियों को भी सुबह की ख़ुशबू मिल जाती होगी, सर्र-सर्र तैरते हुए बड़े जोश में लगती हैं. इन्हें देखकर मेरे पैरों में भी फुर्ती आ जाती है और सुस्ताने का बहाना तलाश करता मन फिर से तेज़ चलने के लिए उकसाने लगता है. इस तिकोने पार्क में टहलने की पर्याप्त जगह और सुस्ताने के लिए सीमेंट की बेंचें भी लगी हैं. वैसे पार्क के बाहर भी दो चार बेंचें हैं, जिन्हें शायद राहगीरों के लिए बनवाया गया होगा, पर फ़िलहाल तो उन बेंचों के आसपास रोज़ की तरह नारियल पानी,छाछ ,स्प्राउट्स वगैरह बेचने वाले अपना स्टाल जमाने में लगे थे. और उधर एक बेंच पर अभी भी वो लोग बैठे थे.

वह एक बुज़ुर्ग जोड़ा था. उन लोगों को पार्क में आते वक़्त उसी बेंच पर बैठे देखा था. तब शायद ध्यान नहीं गया था, लेकिन अभी टहलते हुए कई बार उस तरफ़ निगाह गई तो देखा कि उनके पास एक बड़ा सा बैग था. उम्र के लिहाज़ से कुछ ज़्यादा ही बड़ा बैग लेकर चल दिए थे ये बुज़ुर्गवार. अब शायद चला नहीं जा रहा, ऑटो का इंतज़ार कर रहे होंगे. लेकिन इस बीच कई ऑटो आए और चले गए, पर वो लोग अपनी जगह से नहीं हिले. आख़िरी चक्कर लगाते हुए फिर वो बेंच नज़र आई. अब बेंच पर सिर्फ़ वही लोग नहीं थे. बेंच से सटी हुई एक साइकल खड़ी थी, जिसपर नारियल लदे थे. नारियल पानी वाला उनसे कुछ कह रहा था. सैर से लौटने का वक़्त हो गया था, बाहर निकलते हुए देखा नारियल पानी वाला अभी भी वहीं खड़ा था. वो लोग धीमे स्वर में कुछ कह रहे थे, जबकि नारियल पाना वाला तेज़ी से हाथ हिला रहा था. पास से गुज़री तो नारियल पानी वाले का तेज़ स्वर सुना, “दिमाग़ का दही मत करो बाबा. बोला न मैं रोज़ यहीं नारियल बेचता हूं.”

इस बार ढलती उम्र के जोड़े को गौर से देखा. कपड़े सिलवटों से भरे थे. आंखें बुझी, होंठ सूखे, लेकिन चेहरे से संभ्रांत लग रहे थे. स्त्री पुरुष से कुछ वर्ष छोटी होगी, लेकिन उसके बालों में भी चांदी के तार झलक रहे थे. कुछ निकालने के लिए उसने बैग में हाथ डाला था, पर नारियल पानी वाले की बात सुनकर वो बैग से हाथ निकलकर ज़िप बंद करने लगी.
वृद्ध ने उसका हाथ पकड़ कर कहा,”क्या कर रही है?”
स्त्री ने कहा,”चलो कहीं और देखते हैं. वैसे भी यहां मुश्क़िल लग रहा है.”
वृद्ध के झुर्रियों से भरे चेहरे पर और सिलवटें आ गई,”कहां जाएंगे?”
स्त्री मौन थी फिर नारियल पानी वाला तेज़ स्वर में बोला,” कहीं भी जाओ… बस यहां से टलो. लगे बंधे ग्राहकों के आने का समय है, दुकानदारी मत ख़राब करो.“
मैं वहीं ठिठक गई. नारियल पानी वाला मुझे रुकते देख बोला,”देखिए मैडम इस बूढ़े से इतनी देर से कह रहा हूं, कहीं और जाकर बैठ जाओ, पर सुनता ही नहीं है.“
ये सुनते ही स्त्री उठ खड़ी हुई और बैग उठाते हुए बोली,”जा रहे हैं भैया, आओ चलें.”
वृद्ध उठते हुए बोला,”अकेले मत उठा, ला इधर से मैं पकड़ लेता हूं.”

कहां जाना होगा इन्हें? कुछ परेशां लग रहे हैं. मन हुआ उनसे पूछकर देखूं, लेकिन घड़ी पर नज़र जाते ही ये सवाल बौने हो गए.
घर पहुंचने की देर थी. सुबह पंख लगाकर उड़ गई. काम के बीच थोड़ी देर बाद वो जोड़ा भी दिमाग़ से निकल गया.
दोपहर को एक पार्सल भेजने के लिए घर से निकली. रास्ता पार्क के क़रीब से गुज़रता था तो फिर उसी जोड़े को वहां देखा. इस समय उसी बेंच के सामने दोनों ज़मीन मेपर अख़बार बिछाए बैठे थे. धूप तेज़ हो रही थी और पेड़ों की छाया के बावजूद उनके सिर पर चमक जाती थी. बेंच पर किनारे अभी भी वही बैग रखा था, लेकिन अब वह ख़ाली हो चुका था और बेंच की बची हुई जगह पर गड्डी बनाकर कुछ कपड़े रखे थे. उन दोनों के चेहरे धूप में कुम्हलाये-से लग रहे थे. एक पल को लगा पास जाकर देखूं तो क्या बेच रहे हैं. लेकिन उत्सुकता को दबाना पड़ा.अभी सीधे कोरियर वाले की दुकान पहुंचना था, वरना आज ये पार्सल नहीं निकल पाएगा. लौटकर पानी की बोतल और एक छाता इन्हें घर से लाकर दे दूंगी, ये सोचकर सीधे कोरियर वाले की दुकान पहुंच गई. राखी का त्यौहार पास आ रहा था. राखियां भेजने वालों की भीड़ लगी थी. मैं भी लाइन में लगकर अपनी बारी का इंतज़ार करने लगी. वो बेंच और वो जोड़ा फिर दिमाग़ से निकल गया.

कोरियर के बाद दो-चार काम निपटाते हुए घर लौट रही थी तो दूर से ही वो बेंच नज़र आई और उसका सहारा लेकर ज़मीन पर बैठा वो जोड़ा फिर दिख गया. स्त्री ने बेंच पर सिर टिका लिया था और वृद्ध बड़ी बेचारगी से उसे देख रहा था, शायद तेज़ धूप से परशान हो गए थे. प्यास तो लगी ही होगी उन्हें. पानी की बोतल और छाते की याद आ गई. तेज़ी से क़दम बढ़ाते हुए घर पहुंचकर मैंने दोनों चीज़ें लीं. साथ में एक बिस्किट का पैकेट लिया और उन्हें देने के लिए फिर से निकल पड़ी.
दूर से ही वो बेंच नज़र आ रही थी. इस समय स्त्री सजग होकर बैठी थी और वहां खड़ी एक महिला को बेंच पर लगी गड्डी में से कटपीस निकालकर दिखा रही थी. मेरे वहां पहुंचते-पहुंचते उस महिला की ख़रीददारी पूरी हो गई थी. उसने एक कटपीस पर्स में रखा और कुछ रुपए स्त्री के हाथ में थमाकर वहां से चली गई.

मैंने वृद्ध को कहते सुना,”चल, अब देर मत कर पहले मुह में कुछ डाल लें फिर यहां आ जाएंगे.”
स्त्री बोली,”अभी तो बोहनी हुई है, दुकान कैसे समेट दूं? थोड़ी देर रुको फिर चलेंगे.”
वृद्ध बोला,”हां ये भी ठीक है, तुम यहीं बैठो, मैं कुछ लेकर आता हूं.”
वो उठकर जाने के लिए खड़ा हो गया. स्त्री ने कहा,”ये पैसे तो रख लो.”
तब तक सामने मुझे देख दोनों चुप हो गए.
वृद्ध ने स्त्री की ओर देखकर कहा,”मैं न कहता था ये जगह बड़ी शुभ है.”
स्त्री ने मुस्कुराकर उसका अनुमोदन किया और मुझसे पूछा,”कौन सा रंग चाहिए? बहुत अच्छा कपड़ा है, लो हाथ में लेकर देखो.”

मैंने पानी की बोतल वाला थैला एक हाथ में लिए-लिए उनके हाथ से कटपीस उसके ले लिए और कहा,”ये बोतल पकड़िए ज़रा. सुबह भी आप लोग यहीं बैठे थे न, कितने की बिक्री हो गई?”
वृद्ध बोला,”अभी तो बोहनी हुई है, दो चार और बिक जाएं तो हम यहां से चले जाएंगे.” कटपीस देखते हुए ही मैंने कहा,”कपड़ा तो अच्छा है!”
स्त्री उत्साहित होकर बताने लगी,”क्वालिटी में कभी समझौता नहीं करते ये. हमेशा अच्छा माल ही बेचा है, हमारी दुकान तो…” कहते हुए वो रुक गई.
मैंने पूछा,”कहां है आपकी दुकान?”
दोनों ने एक-दूसरे को देखा और ठंडी सांस भरकर वृद्ध ने कहा,”बेच दी, इस महामारी ने सब बर्बाद कर दिया. कुछ नहीं छोड़ा.”
यह कहते हुए उसकी आंखों में निराशा के बादल घुमड़ आए. स्त्री ने तुरंत उसका हाथ पकड़ कर कहा,”ऐसा क्यों कहते हो? बीमारी से निकालकर तुम्हें वापस मेरे लिए भेज दिया, ये क्या कुछ कम है?” फिर तुरंत व्यस्त स्वर में बोली,”आपने कौन-सा रंग पसंद किया?”
मैंने कहा,”रंग तो सभीअच्छे लग रहे हैं.”
स्त्री के स्वर में फिर उत्साह लौट आया,”महंगे नहीं हैं, सिर्फ़ पचास रुपए का एक है. रंग नहीं उतरेगा, कपड़ा रोज़ पहनने पर भी सालभर तक नया दिखेगा.”
मैंने चार कटपीस अलग किये और थैला उस स्त्री को थमाते हुए पर्स से दो सौ रुपये निकाल कर उसे दिए तो उसकी आंखें चमक उठीं. कटपीस मेरे हाथ से लेकर उसने मेरा दिया थैला खोला और बोली,”इसी में रख देती हूं. अभी लपेटने के लिए कागज़ भी नहीं है.”

मैंने थैली लेकर पानी की बोतल और बिस्किट निकालकर उसे देते हुए कहा,”ये लीजिए खाकर पानी पी लीजिए.”
उसने पानी की बोतल हाथ से ले ली और बोली,”हां, प्यास तो लगी है, पर कुछ खाने की इच्छा नहीं है.”
मैंने पैकेट खोलकर बिस्किट निकालकर उसके हाथ में ज़बरदस्ती थमा दिया,”ख़ाली पानी मत पियो काकी, पेट में लगेगा. लो काका आप भी लो,” मैंने हाथ बढ़ाया.
लेकिन वृद्ध के चेहरे पर गहरा संकोच छाया था, स्त्री बोली,”अरे ले लो, मैं भी खा रही हूं.”
वृद्ध ने मेरे हाथ से बिस्किट ले लिया. बिस्किट का पैकेट और छाता मैंने बेंच पर रखे बैग के ऊपर रखकर कहा,”धूप तेज़ हो रही है इसलिए ये ले आई थी.”
स्त्री का चेहरा स्निग्ध हो उठा. उसने पूछा,‘‘पास में रहती हो बिटिया?”
“हां वो सफ़ेद घर दिख रहा है न, वहीं. कुछ और ज़रूरत हो तो बताइएगा.”
वो बोली,“अच्छा. वैसे ज़रूरत कोई नहीं, हम दोनों साथ हैं और ऊपरवाले की दया है, बिक्री भी हो रही है,” फिर वृद्ध से बोली,”लाओ ज़रा वो पचास का नोट देना, जो अभी तुम्हें दिया था. ये लो बिटिया, एक कटपीस मेरी तरफ़ से,“ वो पचास का नोट मेरे हाथ में थमाने लगीं तो मैंने पीछे हटते हुए कहा,“नहीं –नहीं, इसे रखिए…”
मेरी बात को लगभग काटते हुए वृद्ध बोल उठा,”रख लो बिटिया, इसका मन बढ़ जाएगा. चिंता न करो, इसके हाथ में बहुत बरक़्क़त है, ये देती है तो ऊपरवाला दुगने करके भेज देता है, लो रखो पर्स में.”
उस आत्मीय आग्रह के सामने मेरी ज़ुबां बंद हो गई, कुछ शर्म सी महसूस हुई. उनके बड़े दिल के आगे पानी की बोतल, बिस्किट और छाता जैसे मुझ पर ही तरस खाने लगे. मैंने कहा,”मेरा घर सामने ही तो है, कुछ देर वहां सुस्ता लीजिए.”
स्त्री बोली,”ज़रूर आएंगे बिटिया, तुम्हारे घर मिठाई लेकर आएंगे. ऊपरवाले ने चाहा तो दुकान फिर चल निकलेगी,” फिर वृद्ध की ओर मुड़कर बोली,” मैंने सही कहा न?”
वृद्ध के चेहरे पर मुस्कान खिल गई,”सौ टका सही, आएंगे बिटिया, इसका कहा सच होता है. अब देखो न मेरे इलाज में सब कुछ चला गया. मोहल्ले वाले, नाते रिश्तेदार बोले बेटों को ख़बर कर देते हैं अपनी तरफ़ से वो लोग भी ग़लत नहीं थे, कोई कहां तक हमें देखता? घर में कुछ नहीं बचा था और भीख मांगकर जीने के लिए मन तैयार नहीं था, फिर इसने ही कमर कसी, बोली दुकान का माल घर में है तो हिम्मत क्यों हारें? कोशिश करेगे तो सब संभल जाएगा… और देखो, ऊपरवाले ने इसकी कोशिश में अपना हाथ लगा दिया.”
स्त्री बोल उठी,”और इन्होने भी मेरी बात रख ली, वरना बेटों के पास जाना पड़ता. अब तुम्ही बताओ, बड़े शहर के छोटे घरों में हम दो प्राणियों की गुज़र कैसे हो सकती है? फिर यही होता मां एक लड़के के पास और बाप दूसरे लड़के के घर रहता, तो अब ये झंझट ही ख़त्म. हम दोनों साथ हैं तो आगे का रास्ता मिलकर ढूंढ़ ही लेंगे.” कहते हुए फिर काकी के चेहरे पर सुबह की चमक आ गई.
“मैं आसपास में भी बता दूंगी. कटपीस की ज़रूरत हो तो यहां से लेना. मैं फिर आऊंगी काकी,” कहते हुए जीवन यात्रा की ढलान उतर रहे इस जोड़े की जिजीविषा को मैंने प्रणाम किया. घर लौटते हुए मन कुछ हरा और कुछ भरा-भरा सा लग रहा था.

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