जब तक उम्मीद और स्वप्न ज़िंदा रहेंगे, दुनिया ख़ूबसूरत बनी रहेगी. गीत चतुर्वेदी की गहरे अर्थों वाली कविता ‘चंपा के फूल’ का सार कुछ ऐसा ही है.
(दो अजीब और अविश्वसनीय चीज़ों को जोड़ने का काम
करते हैं उम्मीद और स्वप्न
बुनियाद में बैठा भ्रम विश्वास का सहोदर है
उस क़ुरबत का आलिंगन
जो तमाम दूरियों से भी ताउम्र निराश नहीं होती)
कहा था, कांच हूं, पार देख लोगे तुम मेरे
मेरी पीठ पर क़लई लगाकर ख़ुद को भी देखोगे बहुत सच्चा
जिस दिन टूटूंगा, गहरे चुभूंगा, किरचों को बुहारने को ये उम्र भी कम लगेगी
तुमसे प्रेम करना हमेशा अपने भ्रम से खिलवाड़ करना रहा
स्वप्न में हुए एक सुंदर प्रणय को उचक कर छू लेना चाहता हूं
लेकिन चंपा मेरी उचक से परे खिलती है
मैं उसकी छांव में बैठा उसके झरने की प्रतीक्षा करता हूं
एक अविश्वसनीय सुगंध
उम्मीद की शक्ल में मेरे सपने में आती है
मुझे देखो, मैं एक आदमक़द इंतज़ार हूं
मैं सुबह की उस किरण को सांत्वना देता हूं
जो तमाम हरियाली पर गिरकर भी कोई फूल न खिला सकी
चंपा के फूलों की पंखुड़ियां सहलाता हूं
उनकी सुगंध से ख़ुद को भरता तुम्हारे कमरे के कृष्ण से पूछता हूं
चंपा के फूल पर कभी कोई भंवरा क्यों नहीं बैठता
दो पहाड़ियों को सिर्फ़ पुल ही नहीं जोड़ते, खाई भी जोड़ती है
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