मोहब्बत की कच्ची दीवारों के टूटने पर दाग़ लगने का डर होता है. अमृता प्रीतम की कविता इस हक़ीक़त को बख़ूबी बयां कर रही है.
मोहब्बत की कच्ची दीवार
लिपी हुई, पुती हुई
फिर भी इसके पहलू से
रात एक टुकड़ा टूट गिरा
बिल्कुल जैसे एक सूराख़ हो गया
दीवार पर दाग़ पड़ गया…
यह दाग़ आज रूं रूं करता,
या दाग़ आज होंठ बिसूरे
यह दाग़ आज ज़िद करता है…
यह दाग़ कोई बात न माने
टुकुर टुकुर मुझको देखे,
अपनी मां का मुंह पहचाने
टुकुर टुकुर तुझको देखे,
अपने बाप की पीठ पहचाने
टुकुर टुकुर दुनिया को देखे,
सोने के लिए पालना मांगे,
दुनिया के कानूनों से
खेलने को झुनझुना मांगे
मां! कुछ तो मुंह से बोल
इस दाग़ को लोरी सुनाऊं
बाप! कुछ तो कह,
इस दाग़ को गोद में ले लूं
दिल के आंगन में रात हो गई,
इस दाग़ को कैसे सुलाऊं!
दिल की छत पर सूरज उग आया
इस दाग़ को कहां छुपाऊं!
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