गुलज़ार साहब की यह छोटी-सी कविता, अपने अंदर बड़े गहरे भाव छुपाए बैठी है. कई मुग़ालतों से बाहर खींच लाती है कविता ‘दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई’.
दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई
आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई
पक गया है शज़र पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई
फिर नज़र में लहू के छींटें हैं
तुम को शायद मुग़ालता है कोई
देर से गूंजतें हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई
दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई
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