फ़िल्म एनिमल भले ही बॉक्सऑफ़िस पर सफलता के झंडे गाड़ रही हो, पर फ़िल्म के अल्फ़ा मेल वाले मैसेज पर सोशल मीडिया में घमासान मचा हुआ है. कुछ लोग इसे एंटरटेन्मेंट की तरह लेने के लिए कह रहे हैं तो कुछ इसे समाज को ग़लत दिशा दिखानेवाली फ़िल्मों की कैटेगरी में रख रहे हैं. हमारे अपने लेखक-चिकित्सक डॉ अबरार मुल्तानी इस फ़िल्म को मनोविज्ञान और समाजविज्ञान की कसौटी पर परख रहे हैं.
मैं ’एनिमल फ़िल्म’ के डायरेक्टर और लेखक संदीप रेड्डी वांगा का कोमल नाहटा को दिया हुआ इंटरव्यू देख रहा था, जिसमें वे कह रहे थे कि एनिमल केवल एक फ़िल्म है और फ़िल्में लर्निंग टेंपल नहीं होतीं, सीखने के लिए तो स्कूल और कॉलेजेस होते हैं, फ़िल्मों का काम बस एंटरटेन्मेंट करना है.
उनका कहना भी सही है कि फ़िल्में लर्निंग स्कूल या लर्निंग टेंपल नहीं होतीं, उसके लिए हमारे स्कूल और कॉलेजेस हैं. लेकिन ग़ौर से अगर हम देखें तो स्कूल और कॉलेज हमें क्या सिखाते हैं, सिर्फ़ पढ़ना-लिखना और एक आज्ञाकारी कर्मचारी बन जाना. हमारे स्कूल कॉलेज हमें पारिवारिक संबंधों को निभाने की कला नहीं सिखाते, वे हमें नहीं सिखाते कि शत्रुओं से कैसे निपटा जाए, वे हमें नहीं सिखाते कि आपकी पर्सनैलिटी को इन्हैंस करने वाला पहनावा कैसा रखा जाए (वे अनुशासन के नाम पर उनकी ब्रांडिंग करने वाली ड्रेस ज़रूर पहनवाते हैं जिन्हें बच्चा बड़ा होकर कभी पहनना पसंद नहीं करता, आप याद कीजिए क्या आपने अपने स्कूल से निकलने के बाद उससे मिलती जुलती कोई ड्रेस पहनकर ख़रीदी है), वे हमें नहीं सिखाते की लोगों से बातचीत कैसे की जाए, वे हमें नहीं सिखाते कि दोस्ती कैसे की जाए और दुश्मनी कैसे की जाए, वे समाज की आधारशिला माने जाने वाले पति-पत्नी के रिश्तों पर कोई बात नहीं करते, वे नहीं सिखाते कि जीवनसाथी कैसे चुनना चाहिए और जीवनसाथी के प्रति हमारा व्यवहार और कर्तव्य क्या होना चाहिए… आदि,आदि.
जब स्कूल कॉलेज यह सब बेहद ज़रूरी बातें नहीं सिखाते जो कि ज़िंदगी का अहम हिस्सा हैं तो फिर लोग इन्हें कहीं और से सीखते हैं और अगर उन्हें मनोरंजन के साथ यह सब सीखने को मिल जाए तो फिर कहना ही क्या! ऐसे में वे जाने अनजाने फ़िल्मों और सीरियलों को सीखने सिखाने वाली संस्था मानने लगते हैं. आप देखिए कि लोगों के पहनावे, उनके हेयर स्टाइल को हमारे फ़िल्म स्टार कितना प्रभावित करते हैं. अगर आप अभी सड़क पर निकल जाएंगे तो आपको कई नौजवान लड़के लड़कियां फ़िल्मी ऐक्टर और ऐक्ट्रेस द्वारा किसी फ़िल्म में पहने कपड़े, हेयर स्टाइल या ऐक्सेसरीज़ का इस्तेमाल करते हुए दिख जाएंगे (सलमान ख़ान जैसा ब्रेसलेट पहनने की ख़्वाहिश तो कॉलेज के ज़माने में मुझे भी हुई थी). जब बाहरी चीज़ों को फ़िल्में इतना प्रभावित करती हैं तो निःसंदेह मन को भी प्रभावित करती ही होंगी, व्यक्तित्व को प्रभावित करती ही होंगी. अगर नहीं करतीं तो फिर दुनियाभर की सरकारें सेंसरबोर्ड का गठन आख़िर क्यों करतीं, होने देते जो फ़िल्म रिलीज़ होती हैं उन्हें?
ऐसे में यह कहना तो ग़लत है कि फ़िल्में समाज पर कोई असर नहीं डालतीं. हां, फ़िल्में समाज पर असर ज़रूर डालती हैं. लेकिन फ़िल्म बनाने वालों को सारा दोष देना ग़लत है, केवल उन्हीं की ग़लती है यह कहना ग़लत है. वास्तव में ग़लत तो यह है कि हम लोगों को शिक्षा देने वाली संस्थाओं से जीवनोपयोगी शिक्षा नहीं दे रहे हैं, उन्हें सही और ग़लत का भेद नहीं बता रहे हैं. तो ऐसे में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि हम एनिमल जैसी फ़िल्में देखकर कुछ हद तक एनिमल बन रहे हैं.