दोस्ती एक प्यारा रिश्ता है, जो किन्हीं भी दो लोगों के बीच पनप सकती है. रस्किन बॉन्ड की कहानी ‘एक नन्हा दोस्त’ एक चूहे और इंसानी की अबोली दोस्ती को जीवंत करती है.
जब मैं पहली बार लंदन पहुंचा, तब मैं वहां किसी को नहीं जानता था. मैं अठारह साल का था, अकेला था और एक नौकरी की तलाश में था. मैंने एक सप्ताह शोरगुल से भरे एक छात्रावास में बिताया, जहां असंख्य विदेशी छात्र रहते थे, जो अंग्रेज़ी के अलावा हर भाषा बोलते थे. फिर मैंने किराए के एक कमरे का विज्ञापन देखा, जो सिर्फ़ 1 पाउंड प्रति सप्ताह पर उपलब्ध था. मैं तो वैसे भी बेरोज़गार था और मुझे सप्ताह के सिर्फ़ 3 पाउंड भत्ते के रूप में मिलते थे, इसलिए मैंने बिना देखे ही कमरा ले लिया.
वह कमरा एक इमारत के सबसे ऊपर बनी एक छोटी सी अटारी निकला. कमरे की ऊंचाई बहुत कम थी और उसके ऊपर सिर्फ़ एक टाइल जड़ी ढलुआं छत थी. कमरे में एक पलंग था, एक छोटा सा ड्रेसिंग टेबल था और एक कोने में छोटा सा गैस स्टोव. स्टोव जलाने के लिए एक छेद में बहुत सारे सिक्के डालने पड़ते थे. नवंबर का महीना था और बहुत ठंड थी. मेरे पास के सिक्के खत्म होने लगे थे. टॉयलेट जाने के लिए दो मंजिल नीचे उतरना पड़ता था. कमोड के ऊपर एक नोटिस लगी थी, जिस पर लिखा था,‘कृपया अपनी चायपत्ती यहां न डालें’. चूंकि मेरे पास चाय बनाने का कोई साधन नहीं था, इसलिए मेरे पास वहां डालने के लिए चायपत्ती भी नहीं थी. हो सकता है, वहां रहनेवाले अन्य किराएदार (जो कभी-कभार ही दिखाई देते थे) अपनी चायपत्ती वहीं डालते हों.
मेरी मकान मालकिन यहूदी थी और उससे भी मेरा सामना कम ही होता था. वह तभी दिखाई देती थी, जब किराया लेने का समय आता था. वह एक पोलिश शरणार्थी थी, और मुझे लगता है, युद्ध के समय यूरोप में उसे बहुत मुश्किल समय का सामना करना पड़ा होगा. वह अपने कमरे से बाहर बहुत कम निकलती थी.
उस इमारत में एक भी स्नानघर नहीं था. मुझे बेल्साइज रोड पर बने सार्वजनिक स्नानघरों का इस्तेमाल करना पड़ता था. खाना खाने के लिए मैं भूमिगत स्टेशन के नजदीक एक सस्ते से स्नैक बार में जाता था. कभी-कभी मैं अपने साथ डबलरोटी और सार्दिन मछली का डिब्बा घर ले आता था. उस दिन मुझे दावत का मज़ा आ जाता था.
क्या मुझे अकेलापन महसूस होता था? बिलकुल होता था. मैं बिलकुल अकेला था. उस बड़े से शहर में मेरा कोई दोस्त नहीं था. मुझे तो वह शहर भी एकाकी सा लगता था, धूसर और कुहरे में लिपटा हुआ. मैं प्रतिदिन नौकरी के लिए रोजगार कार्यालय का चक्कर लगाता था. आखिर दो हफ़्ते बाद मुझे एक बड़ी सी किराने की दुकान में लेजर क्लर्क की नौकरी मिल गई. वेतन 5 पौंड प्रति सप्ताह था.
अब मैं अमीर था! कम-से-कम मैं रोज के बीन्स और टोस्ट के बदले ढंग का खाना तो खा सकता था. मैंने हैम और चीज खरीदी और फिर सैंडविच व सस्ती शैरी (स्पेन की सफेद मदिरा) के साथ नौकरी मिलने का जश्न मनाया. कुछ ही देर में मेरे कमरे का फर्श डबलरोटी के चूरे से भर गया. मेरी मकान मालकिन को यह बात पसंद नहीं आने वाली थी! मैं उठकर फर्श साफ करने ही वाला था कि मुझे चूंचूँ की आवाज़ आई और मैंने देखा कि एक नन्हा सा चूहा चीज के छोटे से टुकड़े को मुँह में दबाए फर्श पर दौड़ लगा रहा था. पूरे कमरे को पार करके वह ड्रेसिंग टेबल के पीछे कहीं गायब हो गया.
मैंने निश्चय किया कि मैं उस चूरे को साफ नहीं करूंगा; उस चूहे को ही खाने दूंगा. ‘तुम्हें कोई चीज नहीं चाहिए तो भी उसे बरबाद मत करो’, मेरी दादी कहा करती थीं. मुझे चूहा दोबारा नहीं दिखा; लेकिन जब मैं बत्ती बुझाकर सोने चला गया तो मुझे कमरे में उसके इधर-से-उधर भागने की आवाज़ आ रही थी. बीच-बीच में उसकी चूंचूं भी सुनाई दे रही थी, शायद पेट भर जाने के कारण संतुष्टि भरी. चलो, कम-से-कम मुझे जश्न अकेले तो नहीं मनाना पड़ा. मैंने अपने आपसे कहा, कोई साथ न होने से तो एक चूहे का साथ ही भला!
मैं सुबह जल्दी ही काम पर निकल गया और मेरी गैर-मौजूदगी में मकान मालकिन ने मेरा कमरा साफ करवा दिया. जब मैं लौटा तो मैंने ड्रेसिंग टेबल पर एक नोट रखा हुआ देखा, जिस पर लिखा था,‘कृपया फर्श पर खाने की चीजें न बिखेरें’. वह ठीक कह रही थी. मेरा साथी फर्श पर गिरे चूरे से बेहतर का अधिकारी था. इसलिए मैंने एक खाली साबुनदानी में कुछ बिस्कुट के टुकड़े डाले और उसे ड्रेसिंग टेबल के पास रख दिया. लेकिन पता नहीं क्यों, वो साबुनदानी के पास भी नहीं गया. मैं काफी देर तक उसके आने के इंतजार में जागता रहा और जब वह आया तो कमरे के हर कोने में घूमा, मेरे बिस्तर के पास भी आया, लेकिन साबुनदानी के पास नहीं फटका. शायद उसे उसका चटक गुलाबी रंग पसंद नहीं आ रहा था. मुझे तो एक वैज्ञानिक ने बताया था कि चूहे रंगों में अंतर नहीं कर सकते और उनके लिए गुलाबी साबुनदानी और नीली साबुनदानी में कोई फर्क नहीं होता. लेकिन मुझे लगता है, वह वैज्ञानिक ग़लत कह रहा था. अकसर उन्हें फर्क समझ में आ जाता है.
मैं नहीं जानता था कि मेरा चूहा नर था या मादा, लेकिन मेरा मन कह रहा था कि वह मेरी तरह कुंवारा था. यदि मादा होती तो अपने परिवार के साथ रहती. यह तो निश्चित रूप से एकाकी था.
मैंने साबुनदानी हटा दी. अगली शाम काम से लौटते समय मैंने एक प्यारी सी ‘गोल छोटी थाली, तश्तरी’ रकाबी खरीदी और उसके बीच में एक चीज का टुकड़ा रख के उसके घर के पास रख दी. वह लगभग फौरन ही ‘गोल छोटी थाली, तश्तरी’ रकाबी के पास आ गया और चीज को कुतरने लगा. उसे उसका स्वाद पसंद आया और वह पूरा टुकड़ा मुंह में दबाकर ड्रेसिंग टेबल के पीछे अपने बिल में ले गया. ये चूहा तो बहुत नखरेवाला निकला! उसे साबुनदानी नहीं पसंद आई. उसे तो चाइनीज डिजाइनवाली ‘गोल छोटी थाली, तश्तरी’ रकाबी चाहिए थी!
एक समय के बाद हम खुद अपनी सुरक्षा का ध्यान रखने लगते हैं. लंदन में मई की शुरुआत में ही गरमी पड़ने लगती है. कमरे में घुटन महसूस होने के कारण मैंने उसमें मौजूद छोटी सी खिड़की खोल दी, जिसमें से हमारी छत जैसी और आपस में मिलती-जुलती अनगिनत छतें दिखाई देती थीं. लेकिन मैं उसे ज्यादा देर तक खुली नहीं रख पाया. अचानक मुझे अपने पलंग के नीचे से एक आतंकित सी चूंचूं सुनाई पड़ी और मेरा साथी चूहा वहां से निकलकर ड्रेसिंग टेबल के पीछे के सुरक्षित स्थान की ओर भागा. मैंने नजरें उठाईं तो देखा, खिड़की पर एक मोटी सी बिल्ली बैठी है और खोजपूर्ण निगाहों से अंदर झांक रही है. मुझे लगता है, उसने देख लिया था या शायद भांप लिया था कि यदि वह धैर्य रखेगी तो उसे मुफ़्त का भोजन मिल सकता है. बिल्लियों के लिए यहां मुफ़्त भोजन उपलब्ध नहीं है, मैंने कहा. फिर मैंने खिड़की बंद कर दी और दोबारा खोली भी नहीं.
सप्ताहांत में मैं शहर घूमने निकल जाता था. कभी-कभी उपनगरीय सिनेमा हॉल में फिल्म देखने भी चला जाता था, क्योंकि वहां टिकटें सस्ती होती थीं; लेकिन बाकी के पूरे हफ़्ते मैं शाम के समय घर में ही रहता था और अपने उपन्यास पर काम करता था, जो मैं भारत में हुए अपने अनुभवों के बारे में लिख रहा था. कभी-कभी मैं अपनी पांडुलिपि में से कुछ अंश जोर से पढ़ने भी लगता था. चूहा बहुत अच्छा श्रोता तो नहीं था, क्योंकि वह बहुत देर तक एक स्थान पर रहता ही नहीं था; लेकिन अब उसे मुझ पर इतना भरोसा तो हो ही गया था कि वो मेरी उंगलियों के बीच में से डबलरोटी या चीज का टुकड़ा ले लेता था और यदि मैं अपने उपन्यास पर ज्यादा वक्त बिताता तो वो चूंचूं करके मुझे अपनी मौजूदगी का एहसास दिला देता था… जैसे कि मुझे अपनी किसी आवश्यकता पर ध्यान न देने के लिए डांट रहा हो!
और फिर, वह दिन आया, जब मुझे उस लोन रेंजर से (जैसा कि मैं अपने उस साथी को पुकारने लगा था) जुदा होने के बारे में विचार करना था. वेतन में मामूली सी बढ़त और बी.बी.सी. रेडियो से अपनी दो कहानियों के पारिश्रमिक का चेक—इन दोनों बातों का मतलब था कि मैं अब रहने के लिए एक बड़ी और बेहतर जगह की तलाश कर सकता था. मेरी मकान मालकिन को मेरे जाने का दुःख था, क्योंकि अपने लापरवाह रहन-सहन के बावजूद मैं किराया समय पर देता था. और वह नन्हा सा चूहा… क्या वह भी मेरे जाने से दुःखी होगा? अब उसे अपने लिए भोजन का इंतजाम करने दूर जाना पड़ेगा. और हो सकता है, अगले किराएदार को चूहों के बजाय बिल्लियां पसंद हों. लेकिन यह मेरी चिंता का विषय था, उसकी नहीं. इंसानों के विपरीत, चूहे भविष्य की चिंता नहीं करते-न अपने भविष्य की, न दुनिया की.
इस समस्या का समाधान कुछ हद तक दूसरे किराएदार के आने से मिल गया… कोई इंसान नहीं, बल्कि एक और चूहा, शायद मादा, क्योंकि वह मेरे साथी चूहे से कुछ छोटी, लेकिन ज्यादा प्यारी थी. कमरा छोड़ने के दो-तीन दिन पहले जब मैं शाम को घर पहुंचा तो मैंने दोनों को पूरे कमरे में दौड़ लगाते, मस्ती में खेलते-कूदते देखा. क्या ये उनके बीच का प्यार था? मुझे थोड़ी सी ईर्ष्या हुई. मेरे रूममेट को एक साथी मिल गया था, जबकि मैं अभी भी अकेला था. लेकिन जब मैं कमरा छोड़कर जाने लगा तो मैंने इस बात का ध्यान रखा कि उनके खाने के लिए बिस्कुट और रस्क का इतना चूरा छोड़ जाऊं कि एक महीने तक उन्हें परेशानी न हो, बशर्ते हमारी मकान मालकिन को वह पहले न दिख जाए. मैंने अपना पुराना व घिसा हुआ सूटकेस पैक किया और उस छोटी सी अटारी से बाहर निकल आया. जैसे-जैसे हम जिंदगी के सफ़र में आगे बढ़ते हैं, हमारे नए-पुराने दोस्त अकसर पीछे छूट जाते हैं, फिर कभी न मिलने के लिए. कभी-कभी हमारे जीवन में ऐसा समय आता है, जब हम बिलकुल अकेले होते हैं और हमें एक दोस्त की ज़रूरत महसूस होती है. कोई ऐसा, जो खाली, उदास कमरे में लौटने पर हमारा इंतज़ार कर रहा हो! और ऐसे समय में एक नन्हे से चूहे के होने से भी बहुत फ़र्क पड़ जाता है.
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