मनुष्य प्रकृति के लाखों जीवों में से महज़ एक है, पर उसने जब से ख़ुद को प्रकृति का मसीहा समझना शुरू किया है, उसे कई जीवों से अनायास नफ़रत हो गई है. मनुष्यों की नफ़रत झेलनेवाले जीवों में एक, घरेलू मक्खी को सौंदर्य के चश्मे से देखने का नज़रिया प्रकृति प्रेमी कवि लीलाधर मंडलोई का ही हो सकता है.
जो न होता मेरे पास पिता का मेग्नीफाइंस ग्लास
कैसे देख पाता तुम्हारा सौंदर्य
और इतना पुलकित होता
कितने साफ-सुथरे और सुंदर तुम्हारे पंख
इन पर कितने आकर्षक पैटर्न बने हैं
ईश्वर की क्या अद्भुत रचना हैं तुम्हारे संयुक्त नेत्र
तुम्हारी संरचना में एक कलात्मक ज्यामिति है
अनूठी गति और लय में डूबी है तुम्हारी देह
कि उड़ती हो तो जैसे चमत्कार कोई
हवा में परिक्रमा करते हुए, नृत्य कितना मनोरम
इतनी अधिक चपलता के बावजूद
क्या खूब सचेत दृष्टि
कि मालूम तुम्हें उतरने की सटीक प्रविधियां
एक भी लैंडिंग दुर्घटना इतिहास में दर्ज नहीं
तुम्हारी भिन-भिन से नफ़रत करने वाले हम
संचालित हैं अपने अज्ञान और अंधविश्वास से
हमारा सौंदर्यबोध भी इतना प्रदूषित
कि नहीं मान पाते उसके होने को
प्रकृति का एक ख़ूबसूरत उपहार
देखो वह उड़ी और ये बैठ गई
अब उसका नर्मगुदाज स्पर्श है जो जन्म के पहले दिन के
बेटी के स्पर्श की तरह ज़िंदा है
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