सदियों से शक्तिशाली लोग, वर्ग या जातियां कमज़ोरों को ग़ुलामी की बेड़ियों में जकड़ती रही हैं. अतीत की उन क्रूरताओं की दास्तां को कविता की शक्ल दी दिवंगत कवि रमाशंकर यादव विद्रोही ने.
तब बने बाज़ार और बाज़ार में सामान आए,
और बाद में सामान की गिनती में खुल्ला बिकते थे ग़ुलाम,
सीरिया और काहिरा में पट्टा होते थे ग़ुलाम,
वेतलहम-येरूशलम में गिरवी होते थे ग़ुलाम,
रोम में और कापुआ में रेहन होते थे ग़ुलाम,
मंचूरिया-शंघाई में नीलाम होते थे ग़ुलाम,
मगध-कोशल-काशी में बेनामी होते थे ग़ुलाम,
और सारी दुनिया में किराए पर उठते ग़ुलाम,
पर वाह रे मेरा ज़माना और वाह रे भगवा हुकूमत!
अब सरे बाजार में ख़ैरात बंटते हैं ग़ुलाम
लोग कहते हैं कि लोगों पहले ऐसा न था,
पर मैं तो कहता हूं कि लोगों कब, कहां, कैसा न था?
दुनिया के बाज़ार में सबसे पहले क्या बिका था?
तो सबसे पहले दोस्तों… बंदर का बच्चा बिका था
और बाद में तो डार्विन ने सिद्ध बिल्कुल कर दिया,
वो जो था बंदर का बच्चा,
बंदर नहीं वो आदमी था
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