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Home बुक क्लब कविताएं

गिरना: नरेश सक्सेना की कविता

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
February 28, 2022
in कविताएं, बुक क्लब
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गिरना: नरेश सक्सेना की कविता
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गिरने को बुरा माना जाता है, पर हर बार गिरना बुरा नहीं होता. कई बार गिरना अच्छा और फ़ायदेमंद हो सकता है. बता रही है नरेश सक्सेना की कविता.

चीज़ों के गिरने के नियम होते हैं
मनुष्यों के गिरने के कोई नियम नहीं होते
लेकिन चीज़ें कुछ भी तय नहीं कर सकतीं
अपने गिरने के बारे में
मनुष्य कर सकते हैं

बचपन से ऐसी नसीहतें मिलती रहीं
कि गिरना हो तो घर में गिरो
बाहर मत गिरो
यानी चिट्ठी में गिरो
लिफ़ाफ़े में बचे रहो, यानी
आंखों में गिरो
चश्मे में बचे रहो, यानी
शब्दों में बचे रहो
अर्थों में गिरो

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यही सोच कर गिरा भीतर
कि औसत क़द का मैं
साढ़े पांच फ़ीट से ज्यादा क्या गिरूंगा
लेकिन कितनी ऊंचाई थी वह
कि गिरना मेरा ख़त्म ही नहीं हो रहा

चीज़ों के गिरने की असलियत का पर्दाफ़ाश हुआ
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के मध्य,
जहां, पीसा की टेढ़ी मीनार की आख़िरी सीढ़ी
चढ़ता है गैलीलियो, और चिल्ला कर कहता है
इटली के लोगों,
अरस्तू का कथन है कि, भारी चीज़ें तेज़ी से गिरती हैं
और हल्की चीज़ें धीरे-धीरे
लेकिन अभी आप अरस्तू के इस सिद्धांत को
गिरता हुआ देखेंगे
गिरते हुए देखेंगे, लोहे के भारी गोलों
और चिड़ियों के हल्के पंखों, और काग़ज़ों और
कपड़ों की कतरनों को
एक साथ, एक गति से, एक दिशा में
गिरते हुए देखेंगे
लेकिन सावधान
हमें इन्हें हवा के हस्तक्षेप से मुक्त करना होगा,
और फिर ऐसा उसने कर दिखाया

चार सौ बरस बाद
किसी को कुतुबमीनार से चिल्ला कर कहने की ज़रूरत नहीं है
कि कैसी है आज की हवा और कैसा इसका हस्तक्षेप
कि चीज़ों के गिरने के नियम
मनुष्यों के गिरने पर लागू हो गए है

और लोग
हर कद और हर वज़न के लोग
खाए पिए और अघाए लोग
हम लोग और तुम लोग
एक साथ
एक गति से
एक ही दिशा में गिरते नज़र आ रहे हैं

इसीलिए कहता हूं कि ग़ौर से देखो, अपने चारों तरफ़
चीज़ों का गिरना
और गिरो

गिरो जैसे गिरती है बर्फ़
ऊंची चोटियों पर
जहां से फूटती हैं मीठे पानी की नदियां

गिरो प्यासे हलक में एक घूंट जल की तरह
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए
गिरो आंसू की एक बूंद की तरह
किसी के दुख में
गेंद की तरह गिरो
खेलते बच्चों के बीच
गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह
एक कोंपल के लिये जगह खाली करते हुए
गाते हुए ऋतुओं का गीत
कि जहां पत्तियां नहीं झरतीं
वहां वसंत नहीं आता
गिरो पहली ईंट की तरह नींव में
किसी का घर बनाते हुए

गिरो जलप्रपात की तरह
टरबाइन के पंखे घुमाते हुए
अंधेरे पर रौशनी की तरह गिरो

गिरो गीली हवाओं पर धूप की तरह
इंद्रधनुष रचते हुए

लेकिन रुको
आज तक सिर्फ इंद्रधनुष ही रचे गए हैं
उसका कोई तीर नहीं रचा गया
तो गिरो, उससे छूटे तीर की तरह
बंजर ज़मीन को
वनस्पतियों और फूलों से रंगीन बनाते हुए
बारिश की तरह गिरो, सूखी धरती पर
पके हुए फल की तरह
धरती को अपने बीज सौंपते हुए
गिरो

गिर गए बाल
दांत गिर गए
गिर गई नज़र और
स्मृतियों के खोखल से गिरते चले जा रहे हैं
नाम, तारीख़ें, और शहर और चेहरे…
और रक्तचाप गिर रहा है
तापमान गिर रहा है
गिर रही है ख़ून में निकदार होमो ग्लोबीन की

खड़े क्या हो बिजूके से नरेश
इससे पहले कि गिर जाए समूचा वजूद
एकबारगी
तय करो अपना गिरना
अपने गिरने की सही वज़ह और वक़्त
और गिरो किसी दुश्मन पर

गाज की तरह गिरो
उल्कापात की तरह गिरो
वज्रपात की तरह गिरो
मैं कहता हूं
गिरो


कवि: नरेश सक्सेना (संपर्क: 09450390241)
Illustration: Pinterest

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