यूं तो आपने इतिहास में कई युद्धों के कई सेनापतियों के नाम सुने होंगे, लेकिन मणिपुर के इस सेनापति का नाम शायद ही सुना हो, जिसके बारे में घुमक्कड़ी के शौक़ीन ग़ालिब मुसाफ़िर हमें बता रहे हैं. क्योंकि यह सेनापति कोई व्यक्ति नहीं है, बल्कि एक सेनापति के सम्मान में बना ‘सेनापति’ शहर है.
जी हां, ये सेनापति, मणिपुर का एक ख़ूबसूरत शहर है! और इसके नाम के पीछे इतिहास की एक बहादुर कड़ी जुड़ी है. आज मैं आपको वीरता की वही कथा सुना रहा हूं, जो अपनी घुमक्कड़ी के दौरान मैंने जानी.
वर्ष 1857 के स्वाधीनता संग्राम में सफलता के बाद अंग्रेज़ों ने ऐसे क्षेत्रों को भी अपने अधीन करने का प्रयास किया, जो उनके कब्ज़े में नहीं थे और पूर्वोत्तर भारत में मणिपुर एक ऐसा ही क्षेत्र था. स्वाधीनता प्रेमी वीर टिकेन्द्रजीत सिंह वहां के युवराज तथा सेनापति थे उन्हें ‘मणिपुर का शेर’ भी कहते हैं.
उनका जन्म 29 दिसम्बर, 1856 को हुआ था वे राजा चन्द्रकीर्ति के चौथे पुत्र थे. राजा की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र सूरचन्द्र राजा बने दूसरे और तीसरे पुत्रों को क्रमशः पुलिस प्रमुख तथा सेनापति बनाया गया. कुछ समय बाद सेनापति झलकीर्ति की मृत्यु हो जाने से टिकेन्द्रजीत सिंह सेनापति बनाए गए.
यह तो हम जानते ही हैं कि राजवंशों में आपसी द्वेष और अहंकार के कारण सदा से ही गुटबाज़ी होती रही है. मणिपुर में भी ऐसा ही हुआ. अंग्रेज़ों ने इस स्थिति का लाभ उठाना चाहा. टिकेन्द्रजीत सिंह ने राजा सूरचन्द्र को कई बार सावधान किया, पर वे उदासीन रहे इससे नाराज़ होकर टिकेन्द्रजीत सिंह ने अंगसेन, जिलंगाम्बा आदि कई वीर, स्वदेशप्रेमी साथियों सहित 22 सितम्बर, 1890 को विद्रोह कर दिया.
इस विद्रोह से डरकर राजा भाग गया. अब कुलचन्द्र को राजा तथा टिकेन्द्रजीत सिंह को युवराज व सेनापति बनाया गया. पूर्व राजा सूरचन्द्र ने टिकेन्द्रजीत सिंह को सूचना दी कि वे राज्य छोड़कर सदा के लिए वृन्दावन जाना चाहते हैं, पर वे वृन्दावन की बजाय कलकत्ता में ब्रिटिश वायसराय लैंसडाउन के पास पहुंच गए और अपना राज्य वापस दिलाने की प्रार्थना की.
इस पर वायसराय ने असम के कमिश्नर जेडब्ल्यू क्विंटन को मणिपुर पर हमला करने को कहा. उनकी इच्छा टिकेन्द्रजीत सिंह को पकड़ने की थी, चूंकि इस शासन के निर्माता तथा संरक्षक वही थे. क्विंटन 22 मार्च, 1891 को 400 सैनिकों के साथ मणिपुर जा पहुंचा. इस दल का नेतृत्व कर्नल स्कैन कर रहा था. उसने राजा कुलचंद्र को कहा कि हमें आपसे कोई परेशानी नहीं है, आप स्वतंत्रतापूर्वक राज्य करें, पर युवराज टिकेन्द्रजीत सिंह को हमें सौंप दें. लेकिन स्वाभिमानी राजा तैयार नहीं हुए.
अंततः क्विंटन ने 24 मार्च को राजनिवास ‘कांगला दुर्ग’ पर हमला बोल दिया. उस समय दुर्ग में रासलीला का प्रदर्शन हो रहा था. लोग दत्तचित्त होकर उसे देख रहे थे. इस असावधान अवस्था में ही क्विंटन ने सैकड़ों पुरुषों, महिलाओं तथा बच्चों को मार डाला. पर थोड़ी देर में ही दुर्ग में स्थित सेना ने भी मोर्चा संभाल लिया. इससे अंग्रेज़ों को पीछे हटना पड़ा. क्रोधित नागरिकों ने पांच अंग्रेज़ अधिकारियों को पकड़कर फांसी दे दी. इनमें क्विंटन तथा उनका राजनीतिक एजेंट ग्रिमवुड भी था.
अंग्रेज़ सेना की इस पराजय की सूचना मिलते ही कोहिमा, सिलचर और तामू से तीन बड़ी सैनिक टुकडि़यां भेज दी गईं. वर्ष 1891, 31 मार्च को अंग्रेज़ों ने मणिपुर शासन से युद्ध घोषित कर दिया. टिकेन्द्रजीत सिंह ने बड़ी वीरता से अंग्रेज़ सेना का मुक़ाबला किया, पर उनके साधन सीमित थे. अंततः 27 अप्रैल, 1891 को अंग्रेज़ सेना ने कांगला दुर्ग पर अधिकार कर लिया.
अंग्रेज़ों ने राजवंश के एक बालक चारुचंद्र सिंह को राजा तथा मेजर मैक्सवेल को उनका राजनीतिक सलाहकार बनाकर मणिपुर को अपने अधीन कर लिया. टिकेन्द्रजीत सिंह भूमिगत हो गए, लेकिन 23 मई को वे भी पकड़ लिए गए. अंग्रेज़ों ने मुकदमा चलाकर उन्हें और उनके साथी जनरल थंगल को 13 अगस्त, 1891 को इम्फाल के पोलो मैदान (वर्तमान वीर टिकेन्द्रजीत सिंह मैदान) में फांसी दे दी. इस इतिहास की वजह से ही इस ख़ूबसूरत जगह का नाम सेनापति पड़ा!
फ़ोटो: ग़ालिब मुसाफ़िर, गूगल