एक आम हिन्दुस्तानी की पहुंच से कितनी दूर है हिन्दुस्तान की राजधानी और वहां रहनेवाले हिन्दुस्तान के भाग्यविधाता. कवि अरुण चन्द्र रॉय की यह कविता बिना किसी लाग-लपेट के बताती है.
हुज़ूर!
कहां है हिन्दुस्तान की राजधानी!
क्या कहा, दिल्ली!
वही दिल्ली, जहां देश भर से बिजली काट-काट कर
पहुंचाई जाती है रौशनी
वही दिल्ली न,
जहां तरह-तरह के भवन हैं
पूर्णतः वातानुकूलित
करने को हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियों की सेवा
हां, उन्हीं भवनों की खिड़कियों पर लगे हैं न शीशे
जहां हिन्दुस्तान की आवाज़ न पहुंचती है
हुज़ूर! यह नहीं हो सकती हिन्दुस्तान की राजधानी
राजपथ पर चलते हुए जहां
हीनता से ग्रस्त हो जाता है हिन्दुस्तान
लोहे के बड़े-बड़े सलाखों से बने दरवाज़ों के उस ओर राष्ट्रपति
अपने राष्ट्रपति नहीं लगते
सुना है, राजधानी में है कोई संसद
जिसकी भव्यता से हमारी झोपड़ी की ग़रीबी और गहरी हो जाती है
ऐसी भव्य नहीं हो सकती हिन्दुस्तान की राजधानी
यह वही दिल्ली हैं न,
जहां प्रधानमन्त्री अक्सर गुज़रते हैं
और ख़ाली कर दी जाती है सड़कें
ठेल-ठाल कर उनके मार्ग से किनारे कर दिए जाते हैं हम
कितना दूर है मेरा गांव, देहात, क़स्बा
क्या इतनी दूर हो सकती है हिन्दुस्तान की राजधानी!
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