मौजूदा आदिवासी साहित्य का जाना-माना चेहरा वंदना टेटे की यह कविता आदिवासी जीवन की ख़ूबसूरती का बखान करती है. प्रकृति के सानिध्य में बीतती इनकी ज़िंदगी को शब्दों में पिरोती है यह कविता.
हम कविता नहीं करते
अपनी बात कहते हैं
जैसे कहती है धरती
आसमान, पहाड़, नदियां
जैसे कहते हैं
कुसुम के फल
महुआ के फूल
जामुन की गन्ध
कटहल की मिठास
अभी-अभी पैदा हुआ जीव
और जंगल की सनसनाती हवा
हम गीत नहीं गाते
मैना की तरह कूकते हैं
मेमनों की तरह मिमियाते हैं
मेंढ़कों की तरह टर्राते हैं
बारिश के जैसे
धीमे-धीमे महीनों गुनगुनाते हैं
और हाथी मामू के जैसा
बस, एक-दो कड़ी बोलते हैं
हमारी कविताएं और गीत
धूप की तरह हैं
जिनका रूप-सौन्दर्य
कोई शास्त्री नहीं
प्रकृति का विराट साया
निरखता और गुनता है
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