आज़ादी किसे नहीं पसंद? एक पंछी भी सोने के पिंजरे में सारी-सुख सुविधाओं का लाभ लेने के बजाय संघर्ष से भरे आज़ादी के दिन ज़्यादा पसंद करता है. कवि पंछी के माध्यम से हम सभी की आज़ादी की बात करते हैं.
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाएंगे
कनक-तीलियों से टकरारकर
पुलकित पंख टूट जाएंगे
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएंगे भूखे-प्यासे
कहीं भली है कटुक निबौरी
कनक-कटोरी की मैदा से
स्वर्ण श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले
बस सपनों में देख रहे हैं
तरु की फुनगी पर के झूले
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नीले नभ की सीमा पाने
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक अनार के दाने
होती सीमहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सांसों की डोरी
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिए हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो
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