अमूमन हमारा मन बहुत सी बातें सोचता है. इनमें से कई बार वह ऐसी बातें भी सोचता है, जो मुमकिन नहीं हैं, लेकिन फिर भी मन में विचार आता है कि ऐसा होता तो क्या होता? जाने माने गांधीवादी और समाजसेवी हिमांशु कुमार ने डॉक्टर भीमराव रामजी अंबेडकर के सुधार कार्यों और देश के प्रति योगदान को ध्यान में रखते हुए सोचा कि यदि आज के समय में वे होते तो वे क्या करते? तो आइए, जानते हैं क्या कहता है उनका नज़रिया.
अंबेडकर साहब अगर आज होते तो वह क्या कर रहे होते? कुछ संभावित जवाब ये हो सकते हैं- अंबेडकर साहब आज होते तो दलितों पर होने वाले हमलों के ख़िलाफ़ आन्दोलन कर रहे होते. अंबेडकर साहब वक़ील भी थे तो अम्बेडकर साहब अदालतों में दलितों पर होने वाले हमलों के मुकदमे लड़ रहे होते और दलितों की बस्तियां जलने वालों को और दलितों के सामूहिक हत्याकांड करने वाले लोगों को अदालतें ठीक वैसे ही बरी कर रही होतीं, जैसे अदालतों ने लक्ष्मणपुर बाथे, बथानी टोला और हाशिमपुरा के आरोपियों को बरी कर दिया है. ऐसे में अंबेडकर साहब अपने बनाए हुए संविधान, अदालतों और चुनावों का महिमा गान कर रहे होते या पीड़ित लोगों के साथ मिल कर पूरे ढांचे को बदलने की बातचीत का हिस्सा बने होते?
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अंबेडकर साहब ने कहा था कि अगर हमने जल्द ही आर्थिक और राजनैतिक न्याय को भारत के करोड़ों लोगों के लिए हक़ीक़त नहीं बनाया तो लोग इस संविधान को जला देंगे.
बाबा साहब एक क्रन्तिकारी थे. उन्होंने मन्दिर प्रवेश का कार्यक्रम नहीं किया. उन्होंने महाड़ के तालाब के पानी पर सबके अधिकार का आन्दोलन किया. अंबेडकर साहब को इस अन्यायी और पूंजीवादी व्यवस्था के रक्षक के रूप में खड़ा करने का काम भारत के परम्परागत शासक वर्ग ने किया है, जिसमें पूंजीपति, बड़े भू मालिक सवर्ण सम्पत्तिवान सत्ताधारी वर्ग शामिल थे.
संविधान को इस व्यवस्था के प्रतीक के रूप में दिखाया गया और अंबेडकर साहब के सीने से संविधान चिपकाए हुए पुतले लगा दिए गए. अंबेडकर साहब के पुतले कब दिखाई पड़ने शुरू हुए? वर्ष 1971 के बाद अंबेडकर साहब के पुतले दिखाए देने शुरू हुए. असल में यह नक्सली आन्दोलन के जवाब में हुई कार्रवाई थी. वर्ष 1967 में नक्सली आन्दोलन को कांग्रेस ने बुरी तरह कुचला था. नक्सली आन्दोलन में एक समय में दलितों की भागीदारी का प्रतिशत 80% था, यह दलितों के लम्बे समय की उपेक्षा और अत्याचारों का परिणाम था.
आज़ाद भारत में गोडसे के बाद पहली फांसी दो दलित किसानों को हुई थी. इन किसानों पर आरोप था कि उन्होंने ज़मींदार को मार डाला था. दलितों और आदिवासियों के एक हो जाने से मौजूदा व्यवस्था को बदलने के लिए वैकल्पिक राजनैतिक आन्दोलन के बहुत मज़बूत हो जाने का ख़तरा खड़ा हो गया था.
दलितों को व्यवस्था विरोध के आन्दोलन से अलग करने के लिए अंबेडकर साहब को व्यवस्था के समर्थक के रूप में पेश किया गया. आज भी बहुत सारे दलित चिन्तक मानते हैं कि दलित युवाओं का एकमात्र लक्ष्य सरकारी नौकरी पा लेना है, जबकि अंबेडकर साहब को सबसे ज़्यादा निराशा इसी पढ़े लिखे वर्ग से थी. जो नौकरी पाने के बाद अपने समुदाय को भूल जाते हैं और अन्याय करने वाली व्यवस्था के सेवक बन जाते हैं. अंबेडकर साहब को और ज़्यादा पढ़े जाने और समझे जाने की ज़रूरत है.
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