वक़्त का चूल्हा जलते रहने के लिए ईंधन मांगता है. गुलज़ार साहब की कविता ईंधन उपलों की टेक लेकर बचपन से बुढ़ापे के सफ़र को रेखांकित करती है.
छोटे थे, मां उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूंधा करते थे
आंख लगाकर-कान बनाकर
नाक सजाकर
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला
तेरा उपला
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे
हंसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पे खेला करता था
रात को आंगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आई
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था
इक मुन्ना था
इक दशरथ था
बरसों बाद-मैं
श्मशान में बैठा सोच रहा हूं
आज की रात इस वक़्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया!
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