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दीप से दीप जलते हैं इसी तर्ज़ पर भोजन देना हमारा छोटा-सा प्रयास है: हिफ़ज़ान अहमद हाशमी

शिल्पा शर्मा by शिल्पा शर्मा
May 10, 2021
in ओए हीरो, ज़रूर पढ़ें, मुलाक़ात
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दीप से दीप जलते हैं इसी तर्ज़ पर भोजन देना हमारा छोटा-सा प्रयास है: हिफ़ज़ान अहमद हाशमी
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कोविड-19 की दूसरी लहर हमारे देश के हर हिस्से में कहर ढा रही है, लोग असहाय से अपने क़रीबियों को लेकर अस्पतालों का चक्कर लगा रहे हैं. बेड्स, ऑक्सिजन, दवाइयां, प्लाज़्मा आदि की आवश्यकताओं के लिए भटक रहे हैं, ऐसे में सोशल मीडिया ने लोगों को थोड़ी राहत दी है. क्योंकि कई लोग इसके ज़रिए पैन इंडिया लेवल पर लोगों की मदद कर रहे हैं. जहां कई लोग सही सूचनाएं पहुंचा रहे हैं, वहीं कई अन्य लोग नि:शुल्क भोजन, दवा, मरीज़ों को लाने-ले जाने के लिए गाड़ी आदि का इंतज़ाम अपने स्तर पर भी कर रहे हैं और कुछ लोग अपनी संस्थाओं के ज़रिए भी कर रहे हैं. हमारी स्व-स्फूर्त कोरोना योद्धा सीरज़ में हम आपकी इन कोरोना योद्धाओं और कोरोना योद्धा संस्थाओं से भी मुलाक़ात करवाएंगे.

मुझे यह सीरीज़ करते देख रहे मेरे दोस्तों ने मेरा ध्यान एक ऐसे पोस्टर पर दिलवाया, जिस पर लिखा था-यदि आप भोपल में हैं तो आप हमारे मेहमान हैं. हमें फ़ोन कीजिए और हम आपको शुद्ध शाकाहारी भोजन मुहैय्या कराएंगे. यह कोरोना और लॉकडाउन के चलते इलाज के लिए भोपाल आए मरीज़ों और परिजनों के लिए भोजन पहुंचाने की व्यवस्था है, जिसे जमात-ए-इस्लामी हिंद, भोपाल की ओर से संचालित किया जा रहा है. पोस्टर पर दिए गए नंबर पर कॉल करने के बाद मैं जमात-ए-इस्लामी हिंद, भोपाल शहर के अध्यक्ष हिफ़ज़ान अहमद हाशमी तक पहुंची और उन्होंने बताया कि कैसे उनकी संस्था भोपाल में हमीदिया हॉस्पिटल के पास रोज़ाना 300-400 लोगों के लिए मुफ़्त शाकाहरी भोजन की व्यवस्था करवा रही है. यहां पेश हैं हिफ़ज़ान हाशमी से हुई बातचीत के अंश.

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आपके पोस्टर में लिखा है कि ‘यदि आप भोपाल आए हैं तो आप हमारे मेहमान हैं और ये भी कि शुद्ध शाकाहारी रसोई परोसी जाएगी’, ये सोच कैसे अस्तित्व में आई?
हम इंसानियत में विश्वास रखते हैं और हर इंसान को अपना भाई समझते हैं. और यदि वो अपने धर्म के हिसाब से शाकाहारी है तो हम उसे वही परोसेंगे. उसी हिसाब से बनाकर देंगे, लेकिन किसी भी हाल में उसे भूखा नहीं रहने देंगे. और दूसरी बात ये कि यदि इस लॉकडाउन के दौर में कोई आदमी भोपाल में अपने मरीज़ को लेकर आएगा तो यदि उसे भोजन की ज़रूरत है तो कहां जाएगा? ये किसी भी मरीज़ और उसके साथ आए तीमारदार की बुनियादी ज़रूरत थी, जिसे हमने पूरा करने की कोशिश की. हालांकि हमारा यह पोस्टर सिर्फ़ हमीदिया अस्पताल के आसपास के लिए है, क्योंकि यह सबसे बड़ा हॉस्पिटल है और यहां बहुत से मरीज़ इलाज के लिए आते हैं. लेकिन हम मांग आने पर और हमारे पास उपलब्ध होने पर दूसरे अस्पतालों में भी भोजन के पैकेट पहुंचाते हैं.

ये खाना बनाने और पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया कैसे होती है? क्या आप दूर-दराज़ के अस्पतालों में भी खाना पहुंचाते हैं?
हम शुरुआत में अस्पताल में मौजूद मरीज़ों/तीमारदारों के पास भोजन के पैकेट लेकर गए और उनसे कहा कि खाना ले लीजिए. शुरुआत में हम 200-250 पैकेट खाना ले जाया करते थे. और अब लगभग 300-400 पैकेट खाना रोज़ाना बनाया और बांटा जाता है. कभी हमीदिया हॉस्पिटल में पैकेट्स की खपत कम होती है तो हम आसपास के दूसरे अस्पतालों में भी बांट देते हैं. खाने में हम कभी सब्ज़ी-रोटी देते हैं. रोटियां ऐल्युमिनम फ़ॉइल में रैप होती हैं. कभी वेज पुलाव होता है, जिसे ऐल्युमिनम के कंटेनर्स में भरकर देते हैं. खाना बहुत हाइजिनिक तरीक़े से बनाया जाता है, अच्छी तरह पका हुआ और पैक किया हुआ होता है. खाना पकानेवाले हमारी ही संस्था के सदस्य हैं और वे बाक़यदा मास्क, ग्लव्स पहने होते हैं. खाना पकाने के लिए हमारा एक सेंट्रलाइज़्ड किचन है. कोह-ए-फ़िज़ा की मस्ज़िद में नीचे की ओर एक किचन बना हुआ है. पहले भी हर सप्ताह इस मस्ज़िद की ओर से खाना बांटा जाता था, लेकिन लॉकडाउन में वह काम रोकना पड़ा था तो हमने उनसे इजाज़त लेकर वहां खाना बनवाना शुरू किया है.
हमारे पास संसाधन बड़े सीमित हैं और भोपाल बड़ा शहर है. यदि शहर के किसी दूसरे कोने से भोजन की मांग आती है तो कई बार हम वहां नहीं भी जा पाते हैं, क्योंकि वही रिसोर्सेज़ वाली बात आ जाती है. पर हमें लगता है कि हमारे इस तरह की व्यवस्था करने से हो सकता है कि दूसरे अस्पताल के आसपास रहनेवाले लोगों को भी प्रेरणा मिलेगी और वे अपने आसपास के अस्पताल के मरीज़ों के लिए ऐसा ही क़दम उठना शुरू कर देंगे. वो कहते हैं न कि दीप से दीप जलते हैं तो इसी तर्ज़ पर ये हमारा छोटा-सा प्रयास है

अपनी संस्था के बारे में भी हमें और हमारे पाठकों को जानकारी दें.
एक सोशल-रिलजस ऑर्गैनाइज़ेशन है, पूरे हिंदुस्तानभर में इसके ऑफ़िस हैं और इसका एक सिस्टम है, एक कॉन्स्टिट्यूशन है. हर चार साल में इसके पदों के लिए चुनाव होते हैं. हमार पूरा एक लिखित संविधान है और संगठित हो कर हम बहुत से क्षेत्रों के लिए काम करते हैं. ग़रीबों की, बेसहारा लोगों की मदद करते हैं. हम लोगों को यह समझाने का काम करते हैं कि हम चाहे जो कर लें, लेकिन हर आदमी को मौत का मज़ा तो चखना ही है तो अपनी ज़िंदगी को नेक काम करते हुए गुज़ारिए. जो आदमी मौत को भूल जाता है, वो जीने के सही तरीक़े को भी भूल जाता है इसलिए हम लोगों से अपील करते हैं कि हर क़िस्म की बुराई से अपने आपको बचाइए. ख़ुद को सुधारिए और जब आप ख़ुद को सुधारेंगे तो आपका ख़ानदान सुधरेगा, आपका समाज सुधरेगा और पूरा देश सुधरेगा.
हमारा सोशल सर्विस विंग प्राकृतिक आपदा हो या कोई बड़ा हादसा होने पर मदद करने की पहल करता है. हमारा डिज़ास्टर मैनेजमेंट विंग भी है. आपदा के समय हम अपने सारे रिसोर्सेज़ एकत्र कर के मदद का काम करते हैं. हमारी मदद को राज्य सरकारों, केंद्र सरकार के द्वारा और यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में भी सराहना मिलती रही है. जब गुजरात में भूकंप आया था, जब केरल में बाढ़ आई थी तब भी हम बहुत सक्रिय थे. पहले लॉकडाउन के दौरान जब मज़दूर नंगे पैर ही अपने गांवों को पलायन करने लगे थे, तब भी हमने महसूस किया कि ये लोग इतने दूर से पैदल चले आ रहे हैं. न इनके पास खाने का सामान है, न अपना स्वास्थ्य ठीक रखने का. तब भी जो कुछ भी हमसे हो सका हमने किया. भोजन का बंदोबस्त किया, जूते-चप्पलों का इंतज़ाम किया क्योंकि पैदल चलते-चलते उनके जूते-चप्पल फट गए थे. महिलाओं के लिए सैनेटरी पैड्स का इंतज़ाम भी किया था, ताकि जिसको जो ज़रूरत लगे वो उसका इस्तेमाल कर सके.

पैन्डेमिक के समय लोगों को कोई संदेश देना चाहेंगे?
हम तो यही कहना चाहेंगे कि प्रोटोकॉल का पूरा ख़्याल रखें, इसे हल्के में न लें. यह गंभीर बात है अत: मास्क पहनें, सोशल डिस्टेन्सिंग का पालन करें, बार-बार हाथ धोते रहें. मास्क पाबंदी से लगाएं, मैं तो कहता हूं कि दो मास्क लगाएं. ख़ुद को सुरक्षित रखें और दूसरों की सुरक्षा का ख़्याल रखें. आप सुरक्षित रहेंगे, तभी देश भी सुरक्षित रहेगा. अगर आपका नुक़सान होगा तो देश का नुक़सान होगा.

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शिल्पा शर्मा

शिल्पा शर्मा

पत्रकारिता का लंबा, सघन अनुभव, जिसमें से अधिकांशत: महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर कामकाज. उनके खाते में कविताओं से जुड़े पुरस्कार और कहानियों से जुड़ी पहचान भी शामिल है. ओए अफ़लातून की नींव का रखा जाना उनके विज्ञान में पोस्ट ग्रैजुएशन, पत्रकारिता के अनुभव, दोस्तों के साथ और संवेदनशील मन का अमैल्गमेशन है.

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ओए अफ़लातून

हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

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