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ओए अफ़लातून
Home बुक क्लब कविताएं

जज़्बात का ईंधन और घर का चूल्हा: डॉ संगीता झा की कविता

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
August 24, 2021
in कविताएं, बुक क्लब
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जज़्बात का ईंधन और घर का चूल्हा: डॉ संगीता झा की कविता
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हैदराबाद की जानी-मानी एंडोक्राइन सर्जन डॉ संगीता झा की कविताएं थोड़ी लंबी ज़रूर होती हैं, पर उन्हें पढ़ते हुए आपके सामने कई दृश्य बनने-बिगड़ने लगते हैं. समाज के क्लास डिफ़रेंस की पृष्ठभूमि पर लिखी उनकी कविता सच्चाई समाज के मेहनतकश समाज के हालात पर रौशनी डालती है और उच्च मध्यमवर्ग द्वारा उसके लिए किए जानेवाले देखावे पर से पर्दा उठाती है. तुकबंदी शैली में लिखी गई इस कविता की कई लाइनें सीधे दिल में उतरती हैं (सच्चाई से कहें तो दिल में चुभती हैं).

मेरी ऊंची अट्टालिका
बाजू में उसका टूटा फूटा घर
अंदर भरा था पानी
कोरोना ने कर दिया उसे दर बदर
मेरा बेटा शेरवानी पहन बन रहा था दूल्हा
चार दिनों से उसके घर नहीं जला था चूल्हा
उसे देख दहल गई मैं
दिल गया पसीज
पास बुला उसे अपने
थोड़ा प्यार से दिया सींच
मेरा प्यार था कुछ पैसे और दो रोटी
न ले उसे कर दी उसने आत्मा मेरी छोटी
ग़ुस्से में पूछा उससे कौन है तू?
क्या है तेरी औक़ात
आंखें खोल दी उसने मेरी
दी मुझे असलियत की सौगात

मैं, मैं कौन हूं ना ही पूछो आप
मेरी सच्चाई सुन जाएंगे आप कांप
मैं मेहनत कश हूं, इस देश की आवाज़ हूं
अपने पसीने से देश पे सजने वाला ताज हूं
मेरा ही एक भाई रोज़ भट्टी में तपता है
दूजा आपके कूड़े से सामान बीनता है
सीवर के मैले में, खदान के गरम थैले में
लिए हथेली में जान जो रोज़ उतरता है

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वो मैं हूं
तपती दोपहरी में रिक्शा चलाता हूं
तड़के की सुबह अख़बार मैं लाता हूं
कभी फ़ुटपाथ तो कभी सिगनल
पे सोता हूं… वो मैं हूं
खा कर पुलिस की मार
ख़ुद की क़िस्मत पे रोता हूं…
वो मैं हूं

सपनों की एक दुनिया मैं कहीं
छोड़ के आया हूं
आपकी बिटिया जैसी अपनी गुड़िया
मैं छोड़ के आया हूं
पत्थर सी बेजान हो गयी हैं मेरी आंखें
क्योंकि सुबह एक रोटी फिर दिन भर फांके
अपनी काजल की डिबिया
मैं कहीं छोड़ के के आया हूं
राशन का पर्चा भी मैंने रिश्वत
से ही पाया है
मां का शव रास्ते से
रिश्वत दे कर ही घर लाया है
मैं वो हूं
मैंने मंदिर मस्जिद दोनों को सजाया है
हर दंगे पर आपने हमें ही जलाया है
हर जिस्म यहां मेरी मेहनत से संवरता है
मेरे जैसा एक रुई के हुनर वाला धागे को
तरसता है
करघे पर बैठे मेरे भाई के पैबंद लगे मैले कुर्ते
पर करघा ख़ुद हंसता है

नग़मात निगल लेंगे, जज़्बात निगल लेंगे
यूं ही मेरे सपनों को हालात निगल लेंगे
लोगों से कटी सड़कें कारों से भरे रस्ते
एक दिन मेरे हिस्से के फ़ुटपाथ निगल लेंगे
बीती हुई बातों पर कभी हाथ नहीं मलता
तक़दीर कोसने से कोई काम नहीं बनता
रोना है बहुत आसान ग़म भी बहुत हैं लेकिन
जज़्बात के ईंधन से चूल्हा तो नहीं जलता
आपके इरादों से अनजान नहीं हूं मैं
संदूक में रखने का सामान नहीं हूं मैं
तुम ख़ैर मनाओ बोलूं ना कभी जो मैं
मुश्क़िल जो बन जाऊं मैं आसान नहीं होता
मांगू जो मैं अपनी मेहनत का ईनाम तो क्या होगा
लिख जाऊं जो आपके घर पर अपना नाम
तो क्या होगा
चीख़ों को दबाने का
आहों को कुचलने का अंजाम क्या होगा

मैं डर गयी, बड़े ज़ोर से मैं चिल्लाई
सकपका गयी पूरी की पूरी पसीने से नहाई
एक दिन जब मेरा ही एक भाई नींद से उठेगा
फिर एक इंक़लाब का नारा दुनिया में गूंजेगा
तारीख़ ये कहती है सब मैं ही बदलता हूं
इस वक़्त का पहिया भी मुझसे ही बदलेगा
इस वक़्त का पहिया भी मुझसे ही बदलेगा

Illustration: Pinterest

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डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ [email protected]

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