हम हर दिन ख़ुद को और सभ्य बनाने की कोशिश करते हैं? हमारी यह कोशिश कितनी अप्राकृतिक है, बता रही है कवि विनोद कुमार शुक्ल की यह छोटी-सी कविता ‘जितने सभ्य होते हैं’.
जितने सभ्य होते हैं
उतने अस्वाभाविक
आदिवासी जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक
जंगल का चंद्रमा
असभ्य चंद्रमा है
इस बार पूर्णिमा के उजाले में
आदिवासी खुले में इकट्ठे होने से
डरे हुए हैं
और पेड़ों के अंधेरे में दुबके
विलाप कर रहे हैं
क्योंकि एक हत्यारा शहर
बिजली की रोशनी से
जगमगाता हुआ
सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है
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