अक़्ल बड़ी या भैंस जिस पुराने मुहावरे का बिगड़ा हुआ रूप है, वह है अक़्ल बड़ी या वयस. वयस संस्कृत में तात्कालिक उम्र को कहते हैं, जबकि किसी की आयु पूरी हो जाने के बाद ही जानी जा सकती है. जैसे, मेरे पिताजी ने 78 वर्ष की आयु पाई, जबकि मेरी वयस 58 वर्ष है. यानी मिलीजुली भाषा में बने इस मुहावरे का अर्थ यह हुआ कि कोई अपनी उम्र से बड़ा बनता है या बुद्धि से? अब इस मुहावरे पर आपकी सोच चाहे जो हो, पर नामचीन पत्रकार, कवि चंद्र भूषण के इस विश्लेषण को पढ़ कर वह साफ़ ही होगी.
उम्र के साथ अक़्ल भी बढ़ती है, यह सर्वमान्य धारणा मुझे शुरू से परेशान करती आई है. आप से कोई एक-दो या दस-बीस साल बड़ा है, इस आधार पर बचपन में वह आपको पीटने का और बड़े होने पर अपने ‘ज्ञान’ का बोझा आप पर लादने का हक़दार हो जाता है. अरे भले आदमी, ऐसा कुछ करने से पहले एक बार सोच तो लो कि तुम्हारी उम्र ने तुमको बुद्धिमान बनाया है या पहले से भी ज़्यादा मूर्ख बना दिया है!
ज़्यादातर मामलों में मैं उलटे नतीजे पर ही पहुंचता रहा हूं. यानी यह कि उम्र बीतने के साथ समझ बढ़ना अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलता है. लोगों के फ़ैसले समय के साथ प्रायः एक क्रम में ग़लत से और ज़्यादा ग़लत होते जाते हैं और वे ख़ुद बेवकूफ़ से बेवकूफ़तर होते जाते हैं.
मेरे प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर हर दूसरे-तीसरे दिन घर से झगड़ा करके देर से स्कूल आया करते थे. बिना टीचर की क्लास में अगर वे हमें अपनी जगह से ज़रा भी हिलते-डुलते देख लेते तो धमकी भरे अंदाज़ में बाहर से ही पूछते, ‘ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना कब हुई थी?’ और किसी का जवाब सही या ग़लत होने की परवाह किए बग़ैर ‘दुखहरन’ नाम के मोटे डंडे से एक ही लपेटे में पूरी क्लास की धुनाई करते थे.
स्कूल के संचालन को लेकर उनकी प्रतिबद्धता पर मेरे मन में कभी कोई सवाल नहीं पैदा हुआ. एक धुर देहाती स्कूल में बच्चों को अपनी क्षमता भर पढ़ाई करने के लिए तैयार करना कोई हंसी-खेल नहीं था. लेकिन बच्चों को सोचने या सांस लेने तक का मौक़ा दिए बग़ैर घर का ग़ुस्सा उन पर निकाल देना भी क्या कोई अक़्लमंदी का काम था?
किस-किस की कहूं? तीस-पैंतीस के होते-होते कई लोग तंबाकू, शराब या चरस जैसी लत पकड़ लेते हैं, या जानलेवा हताशा में फंसने का कोई ठोस बहाना ढूंढ लेते हैं. या फिर आर्थिक सुरक्षा के नाम पर कोल्हू के बैल की तरह आंख बांधे किसी के हुक्म पर गोल-गोल घूमते रहने का हुनर साध ठिकाने से लग जाते हैं. इनमें किस चीज़ को आप बुद्धिमत्ता मानेंगे?
चालीस पार करते-करते लोगों में कोई न कोई सनक पैदा होने के लक्षण आप साफ़ देख सकते हैं, जो कई बार उनका पीछा आख़िरी सांस तक नहीं छोड़ती. छोटी-छोटी बातों पर किसी से लड़ पड़ना, सालों पुराने रिश्ते पलभर में तबाह कर देना और फिर पछतावे में घुलते रहना. ख़ुद को सबसे ऊंचा मानने का सुपीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स, या किसी काम का न मान पाने का इनफ़ीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स. इस सब में कहां की बुद्धिमानी है?
इसलिए उम्र का कुल हासिल मुझे जब-तब मच्योरिटी ज़रूर लगती है- यानी जहां फंसने का चांस हो वहां हाथ ही न डालना. लेकिन इस कतराने वाली चालाकी का किसी के रचनात्मक बुद्धि-विवेक से कुछ ख़ास सम्बन्ध मुझे नहीं दिखता. आम भगोड़ेपन से इतर मेच्योरिटी का संदर्भ बहुत सीमित होता है. बस, पुराने तजुर्बे से संभावित गलतियों का अंदाज़ा हो जाना और उनके दोहराव से बच निकलना.
आप अपनी ख़ास नज़र से दुनिया को देख सकें, नए-ताज़े काम कर सकें, पुरानी हदें पार करने के रास्ते निकाल सकें, इसमें न तो उम्र का कोई योगदान है, न उम्रदार लोग इसमें आपकी कोई मदद कर पाएंगे. हां, नज़र धुंधली करने या आपके पहिए में फच्चर फंसाने का एक भी मौक़ा वे हाथ से बिल्कुल नहीं जाने देंगे. लिहाजा कभी ज़रूरी लगे तो उम्र और अक़्ल को अलगाकर देखने की कोशिश की जानी चाहिए.
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