ग़ुलाम अली की जादुई आवाज़ में हम सभी ने इब्ने इंशा की यह ग़ज़ल कई बार सुनी होगी. आज ख़ुद पढ़कर गुनगुना भी लीजिए.
कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा
कुछ ने कहा ये चांद है कुछ ने कहा चेहरा तेरा
हम भी वहीं मौजूद थे, हम से भी सब पूछा किए,
हम हंस दिए, हम चुप रहे, मंज़ूर था परदा तेरा
इस शहर में किस से मिलें हमसे तो छूटी महिफ़लें,
हर शख़्स तेरा नाम ले, हर शख़्स दीवाना तेरा
कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएं मगर,
जंगल तेरे, पर्वत तेरे, बस्ती तेरी, सहरा तेरा
तू बेवफ़ा तू मेहरबां हम और तुझ से बद-गुमां,
हम ने तो पूछा था ज़रा ये वक़्त क्यूं ठहरा तेरा
हम पर ये सख़्ती की नज़र हम हैं फ़क़ीर-ए-रहगुज़र,
रस्ता कभी रोका तेरा दामन कभी थामा तेरा
दो अश्क जाने किस लिए, पलकों पे आ कर टिक गए,
अल्ताफ़ की बारिश तेरी अक्राम का दरिया तेरा
हां हां, तेरी सूरत हंसी, लेकिन तू ऐसा भी नहीं,
इस शख़्स के अशआर से, शोहरा हुआ क्या-क्या तेरा
बेशक, उसी का दोष है, कहता नहीं ख़ामोश है,
तू आप कर ऐसी दवा बीमार हो अच्छा तेरा
बेदर्द, सुननी हो तो चल, कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल,
आशिक़ तेरा, रुसवा तेरा, शायर तेरा, ‘इन्शा’ तेरा
Illustration: Pinterest