कविता कन्यादान में मां विदा हो रही अपनी बेटी को पारंपरिक सीखों से हटकर कुछ नई बातें बता रही है. वह अपने जीवन के अनुभव का पूरा निचोड़ अपनी बेटी को सौंप रही है. छोटी-सी यह कविता बहुत गहरी है और इसके मायने बहुत बड़े हैं.
कितना प्रामाणिक था उसका दुख
लड़की को दान में देते वक़्त
जैसे वही उसकी अंतिम पूंजी हो
लड़की अभी सयानी नहीं थी
अभी इतनी भोली सरल थी
कि उसे सुख का आभास तो होता था
लेकिन दुख बांचना नहीं आता था
पाठिका थी वह धुंधले प्रकाश की
कुछ तुकों और कुछ लयबद्ध पंक्तियों की
मां ने कहा पानी में झांककर
अपने चेहरे पर मत रीझना
आग रोटियां सेंकने के लिए है
जलने के लिए नहीं
वस्त्र और आभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह
बंधन हैं स्त्री जीवन के
मां ने कहा लड़की होना
पर लड़की जैसी दिखाई मत देना
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