बच्चे के लिए मां का कोई एक रूप नहीं होता. वह मां को हर रूप में देख सकता है. जैसे निदा फ़ाज़ली की कविता ‘खट्टी चटनी जैसी मां’ मां को खट्टी चटनी से लेकर, घर की कुंडी और भरी दुपहरी में भी देखती है.
बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां,
याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुंकनी जैसी मां
बांस की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे,
आधी सोई आधी जागी थकी दुपहरी जैसी मां
चिड़ियों के चहकार में गूंजे राधा-मोहन अली-अली,
मुर्गे की आवाज़ से खुलती, घर की कुंडी जैसी मां
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सब में,
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी मां
बांट के अपना चेहरा, माथा, आंखें जाने कहां गई,
फटे पुराने इक अलबम में चंचल लड़की जैसी मां
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