मरहूम शायर राहत इंदौरी की यह ग़ज़ल उनके द्वारा पढ़ी गई सबसे लोकप्रिय ग़ज़लों में एक है. हिंदुस्तान पर सबके हक़ की बात करने वाली यह ग़ज़ल आज भी प्रासंगिक है.
अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है
ये सब धुआं है कोई आसमान थोड़ी है
लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में
यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है
मैं जानता हूं कि दुश्मन भी कम नहीं लेकिन
हमारी तरह हथेली पे जान थोड़ी है
जो आज साहिब-ए-मसनद1 हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है
हमारे मुंह से निकले वही सदाकत2 है
हमारे मुंह में तुम्हारी ज़बान थोड़ी है
सभी का ख़ून है शामिल यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है
1. सत्ताधीश; 2. सच्चाई
शायर: राहत इंदौरी
पुस्तक: दो क़दम और सही
प्रकाशन: मंजुल पब्लिशिंग हाउस
Illustration: Pinterest