भारत और पाकिस्तान इन दो पड़ोसी मुल्क़ों में युद्ध का सिलसिला आज़ादी के तुरंत बाद ही शुरू हो गया था. भारत-पाक पहला युद्ध अक्तूबर 1947 में शुरू हुआ. कश्मीर पर पाकिस्तान के हमले के जवाब में भारतीय सेना ने ग़ज़ब का पराक्रम दिखाया था. ऐसे ही एक नायाब योद्धा थे मेजर सोमनाथ शर्मा. अगर वे नहीं होते तो आज श्रीनगर भी पीओके का हिस्सा होता. मेजर सोमनाथ शर्मा के शहादत दिवस पर हमने एका-वेस्टलैंड से प्रकाशित पुस्तक शौर्य गाथा: भारत के वीर सेनानी के उस हिस्से को प्रकाशित कर रहे हैं, जिसमें पहले परम वीर चक्र विजेता मेजर शर्मा के शौर्य की गाथा है.
आज़ादी के बाद कश्मीर न तो भारत के साथ था और न ही पाकिस्तान के साथ. मुस्लिम बाहुल्य जनसंख्या वाले कश्मीर के हिंदू प्रशासक महाराजा हरि सिंह ने दोनों देशों के साथ ‘स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट’ यानी यथास्थिति बहाल रखने का समझौता करना चाहा. पाकिस्तान ने तुरंत यह समझौता कर लिया, पर भारत ने सोचने के लिए समय मांगा. महाराजा हरि सिंह कश्मीर को स्विट्ज़रलैंड की तरह धरती का स्वर्ग बनाना चाहते थे. जहां भारत कश्मीर के मामले में शांत था, वहीं पाकिस्तान समझौता करने के बावजूद कश्मीर को ज़बरन पाकिस्तान में मिलाना चाहता था. अक्तूबर 1947 को अपने उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र के पठानों को कबायलियों के वेश में कश्मीर पर हमला करने भेजा. अक्तूबर के आख़िर में कबायली हमलावरों और उनके साथ वेश बदलकर पाकिस्तानी सेना का सैनिकों ने कश्मीर पर हमला शुरू कर दिया. पाकिस्तान को पता था कि कश्मीर का भारत के साथ समझौता नहीं हुआ है, इसलिए वह बचाव करने नहीं आएगा. जब कबायली हमलावर श्रीनगर पर कब्जा करने के क़रीब पहुंचे तो घबराकर महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्तूबर को भारत में कश्मीर के विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए. उसके फौरन बाद भारतीय सेना की 1, सिख बटालियन 27 अक्तूबर को श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतर गई. कर्नल दीवानचंद राय के नेतृत्व में सिख बटालियन ने हमलावरों को बारामूला से आगे बढ़ने से रोक दिया. बारामूला की रक्षा करते हु्ए कर्नल दीवानचंद शहीद हो गए. उनकी वीरता और साहस के लिए भारत सरकार ने उन्हें स्वतंत्र भारत का पहला वीरता पुरस्कार ‘महावीर चक्र’ प्रदान किया.
मेजर सोमनाथ शर्मा की अद्भुत वीरगाथा
1, सिख बटालियन के साथ ही सोमनाथ शर्मा की 4, कुमाऊं बटालियन को भी दिल्ली के नज़दीक होने की वजह से जल्दी से जल्दी श्रीनगर पहुंचने के आदेश मिल गए थे. इस पूरे ऑपरेशन को नियंत्रित करने के लिए इस बटालियन के साथ ही ब्रिगेडियर एलपी सेन को भी श्रीनगर हवाई अड्डे पर पहुंचा दिया गया था. 27 अक्तूबर की शाम तक मेजर सोमनाथ शर्माअपनी बटालियन के साथ श्रीनगर हवाई अड्डे पर पहुंच चुके थे. इस समय दुर्भाग्य से मेजर शर्मा के एक हाथ की हड्डी टूटी हुई थी और उस पर प्लास्टर लगा हुआ था, जिसके कारण डॉक्टरों ने उन्हें युद्ध मैदान में जाने से मना किया था. परंतु मेजर शर्मा ने डॉक्टरों की सलाह की परवाह न करते हुए युद्ध मैदान में जाने का निर्णय किया. इस प्रकार 4, कुमाऊं की पहली दो कंपनियों के साथ में मेजर शर्मा श्रीनगर हवाई अड्डे पर पहुंच चुके थे.
पाकिस्तानी हमलावरों ने जब बारामूला से आगे बढ़ने में सिख बटालियन का ज़बरदस्त प्रतिरोध देखा तो उन्होंने श्रीनगर हवाई अड्डे तक पहुंचने के लिए बडगाम का रास्ता पकड़ा. इसी दौरान, 27 अक्तूबर को जब, कुमाऊं बटालियन श्रीनगर पहुंची तो कमांडिंग अफ़सर सेन ने उसे हवाई अड्डे की सुरक्षा सुनिश्चित करने के आदेश दिए. इस आदेश के बाद मेजर शर्मा को कुछ ख़ास अच्छा नहीं लगा, क्योंकि सिख बटालियन को तो दुश्मन से मुक़ाबला करने का मौक़ा मिल गया और उनके हिस्से हवाई अड्डे की सुरक्षा का काम ही हाथ आया था. परंतु 28 अक्तूबर को दुश्मन के रास्ता बदलने की सूचना पाकर सुबह 8 बजे ही ब्रिगेडियर सेन ने 4, कुमाऊं की दोनों कंपनियों को बडगाम की तरफ़ से हमलावरों को रोकने के लिए तैनात कर दिया.
मेजर शर्मा जब अपनी कंपनी के साथ बडगाम पहुंचे तब पाकिस्तानी सेना वहां नहीं थी. असल में, पाकिस्तानियों को भारतीय सैनिकों के बडगाम की तरफ़ आने की सूचना मिल गई थी और वे लोग गांव के घरों में कश्मीरियों के साथ छुप गए. मेजर शर्मा को पूरा विश्वास था कि पाकिस्तानी हमलावर इसी क्षेत्र में कहीं न कहीं छिपे हैं. इसलिए उन्होंने अपने सैनिकों को बडगाम के आसपास ही हमलावरों का इंतज़ार करने के लिए कहा. हालांकि, उन्हें थोड़ी देर के बाद वहां से वापस हवाई अड्डे पर आने के लिए रेडियो पर संदेश मिल रहा था. लेकिन इस संदेश के थोड़ी देर बाद ही दिन में 2 बजे के क़रीब मेजर शर्मा के सैनिकों ने उन्हें सूचना दी कि वे जिन्हें कश्मीरी गांववाले समझ रहे हैं, वह वास्तव में वेश बदलकर छुपे हुए पाकिस्तानी हमलावर हैं. इस सूचना के कुछ समय बाद 3 बजे मेजर शर्मा ने देखा कि पाकिस्तानी हमलावरों ने उन पर चारों तरफ़ से हमला कर दिया है. हमलावर वहां पर एक नाले के रास्ते बढ़ रहे थे. दुश्मन ने मोर्टार और लाइट मशीनगनों (एलएमजी) से हमला करना शुरू कर दिया. इन 500 पठान हमलावरों और पाकिस्तानी सैनिकों को पाकिस्तानी सेना का एक मेजर कमांड कर रहा था. इस मेजर की मंशा हमलावरों की ज़्यादा संख्या के साथ श्रीनगर हवाई अड्डे पर कब्जे की थी, लेकिन दिन के 2 बजे तक उसके पास केवल 500 हमलावर ही एकत्रित हो पाए थे. इसलिए वह अपनी टीम के साथ बडगाम के घरों में छुपकर अपने साथियों का इंतज़ार कर रहा था. इस पाकिस्तानी मेजर को भारतीय सेना की टुकड़ियों के धीरे-धीरे विमानों से श्रीनगर हवाई अड्डे पर पहुंचने की ख़बर भी मिल रही थी. उसे पता था कि यदि वह और इंतज़ार करता रहा तो वह भारतीयों का मुक़ाबला नहीं कर पाएगा. इसलिए उसने 3 बजे अपने 500 साथियों के साथ मेजर शर्मा की कंपनी पर हमला कर दिया.
मेजर सोमनाथ शर्मा के नेतृत्व में कुमाऊं बटालियन के 90 सैनिकों ने रोक दी पठानों की राह
पठानों की प्रवृत्ति लड़ाकू क़िस्म की होती है इसलिए उन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए हर तरफ़ से आगे बढ़ना शुरू कर दिया. परंतु बहादुर कुमाऊं सैनिकों ने इनका मुंहतोड़ जवाब दिया. मेजर शर्मा ने बडगाम इलाक़े को चारों तरफ़ से देखकर एक ऐसे ऊंचे स्थान पर अपनी कंपनी के मोर्चे बनवा दिए थे, जहां से प्राकृतिक अवरोधों के पीछे अपनी सुरक्षा करते हुए इन पाकिस्तानी हमलावरों को रोका जा सके. मेजर शर्मा की डेल्टा कंपनी ने दुश्मन के फ़ायर का जवाब देना शुरू कर दिया तथा एक चट्टान की तरह केवल 90 सैनिकों ने ही पाकिस्तानी हमलावरों का रास्ता रोक दिया.
मेजर शर्मा पहले से ही एक हाथ से घायल थे फिर भी उन्हें अपने कष्टों की परवाह नहीं थी. वह एक मोर्चे से दूसरे मोर्चे में जाकर अपने
सैनिकों का मनोबल बढ़ा रहे थे तथा ज़रूरी निर्देश दे रहे थे. इस प्रकार, बहादुरी से लड़ते हुए डेल्टा कंपनी ने दुश्मन का पहला हमला नाकाम कर दिया. शाम के 6 बजे मेजर शर्मा की कंपनी को तीन तरफ़ से दुश्मनों ने घेर लिया था. दुश्मन के हमले को रोकते हुए डेल्टा कंपनी की गोलियों का भंडार क़रीब-क़रीब ख़त्म हो रहा था. मेजर शर्मा ने रेडियो पर एम्युनिशन की मांग की, तो मेजर शर्मा की स्थिति को देखते हुए ब्रिगेडियर सेन ने उन्हें पीछे हटने के लिए कहा. इस पर मेजर शर्मा ने जवाब दिया,‘दुश्मन केवल 50 गज दूरी पर है इसलिए इस समय हमलोग पीठ दिखाकर यहां से भाग नहीं सकते. और मेरी कंपनी आख़िरी गोली, आख़िरी सैनिक तक दुश्मन का मुक़ाबला करेगी.’
अपने कंपनी कमांडर के दृढ़निश्चय तथा उनके अपने हाथ की चोट की भी परवाह न करते हुए मोर्चे पर डटे होने को देखते हुए कुमाऊं जवानों ने दुश्मन का शेर की तरह आख़िरी गोली तक मुक़ाबला किया. इसी समय ब्रिगेडियर सेन ने कुमाऊं की दूसरी कंपनी को बडगाम में मेजर शर्मा की मदद के लिए फ़ौरन रवाना कर दिया था.
पहले हमले के बाद दुश्मन ने लगातार और हमले किए. इन हमलों के कारण डेल्टा कंपनी के एम्युनिशन के ख़त्म होने के साथ-साथ उनके
सैनिक भी शहीद होते जा रहे थे. सेना में लाइट मशीनगन को चलाने के लिए 2 सैनिक होते हैं, जिनमें एक फ़ायर करता है और दूसरा गन की मैगजीन तैयार करता है. मेजर शर्मा ने देखा कि एक एलएमजी का एक सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गया है. इसको देखते हुए उन्होंने अपने एक हाथ से ही एलएमजी की मैगजीन भरनी शुरू कर दी थी. इस प्रयास में कई बार मेजर शर्मा दुश्मन के सीधे फ़ायर से बाल-बाल बचे, फिर भी पूरे जोश में वे अपने सैनिकों का हौसला बढ़ाते रहे. मेजर शर्मा और उसके साथियों ने दुश्मन का आगे बढ़कर श्रीनगर हवाई अड्डे पर कब्जे का सपना चकनाचूर कर दिया था. मेजर शर्मा जिस मोर्चे में मैगजीन भर रहे थे उसी मोर्चे में अचानक दुश्मन के मोर्टार का गोला गिरा, जिसके विस्फोट में मेजर शर्मा और मोर्चे में मौजूद तीनों सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए.
मेजर शर्मा अक्सर युद्ध में अपनी माताजी द्वारा दी गई एक छोटी-सी गीता अपनी जेब में रखते थे. उनकी वीरगति के बाद देखा गया कि मेजर शर्मा का पार्थिव शरीर गीता के फटे कागजों से ढंका हुआ है, जिससे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इन गीता के कागजों के रूप में भगवान उन्हें उनकी अंतिम यात्रा के लिए आशीर्वाद दे रहे हैं.
क्या हुआ मेजर शर्मा की शहादत के बाद?
आज़ादी से पहले भारतीय सेना में अंग्रेज़ केवल कुछ गिने-चुने भारतीयों को किंग कमीशन देने के अलावा ज़्यादातर भारतीयों को वायसराय कमीशन देते थे, जो आज के जूनियर कमीशन ऑफ़िसर से ऊपर तथा किंग कमीशन प्राप्त अफ़सरों के नीचे होते थे. ऐसे ही एक वीर बीसीओ मेजर शर्मा की डेल्टा कंपनी में भी थे. उन्होंने मेजर शर्मा के वीरगति को प्राप्त होते ही कंपनी की कमान संभाली.
मेजर शर्मा की वीरगति के समय कंपनी के ज़्यादातर सैनिक भी शहीद हो चुके थे और कंपनी का गोला-बारूद भी ज़्यादातर समाप्त हो चुका था. केवल गिने-चुने सैनिक ही ज़िंदा बचे थे. इन बचे हुए सैनिकों के पास किसी के पास तीन तो किसी के पास पांच गोली ही बची थीं. ऐसी स्थिति में इस बहादुर बीसीओ ने अपने साथियों को ललकारते हुए कहा कि हम यहां पर मरने के लिए नहीं, बल्कि दुश्मन को मारने के लिए आए हैं और उन्होंने सब सैनिकों से बचा हुआ एम्युनिशन इकट्ठा करके इसे कंपनी की एक एलएमजी की मैगजीन में भर लिया. इसके बाद यह बहादुर बीसीओ इस एलएमजी को लेकर स्वयं खुले में दुश्मन पर शेर की तरह टूट पड़ा. इस अचानक तथा अप्रत्याशित हमले से दुश्मन के बहुत से पठान हमलावर वहीं ढेर हो गए तथा बचे हुए हमलावरों में भगदड़ मच गई. इसी अफरा-तफरी में रात के 10 बज चुके थे और ब्रिगेडियर सेन द्वारा भेजी कंपनी भी इन हमलावरों को रोकने के लिए पूरी तैयारी के साथ वहां पहुंच चुकी थी. इस कंपनी ने बचे हुए पठानों को भी वहीं ढेर कर दिया.
इस प्रकार पूरा दिन मेजर सोमनाथ शर्मा तथा उनकी कंपनी के वीर सैनिकों ने दुश्मन को बडगाम में ही रोककर भारतीय सेना के और अधिक सैनिकों को हवाई मार्ग से शीघ्रातिशीघ्र श्रीनगर पहुंचने में सहायता की. अगर ऐसा नहीं हुआ होता और अगर हमलावर श्रीनगर हवाई अड्डे पर कब्जा कर लेते तो शायद आज पूरा श्रीनगर, बडगाम और बारामूला भी पाक-अधिकृत कश्मीर का हिस्सा होता. मेजर सोमनाथ शर्मा को मरोपरांत परम वीर चक्र पुरस्कार से सम्मानित किया गया. वे यह सैनिक पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले सैनिक थे.
पुस्तक साभार: शौर्य गाथा: भारत के वीर सेनानी
लेखक: ले. कर्नल शिवदान सिंह और मारूफ़ रज़ा
प्रकाशक: एका, वेस्टलैंड का इम्प्रिंट
मूल्य: रु. 199
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