भारत में लगभग सत्तर प्रतिशत महिलाएं किसी न किसी रूप में घरेलू हिंसा की शिकार हैं. वर्ष 2005 में बना घरेलू हिंसा अधिनियम महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाता है. पूर्व प्रशासनिक अधिकारी और वरिष्ठ वक़ील आभा सिंह इस अधिनियम की उन ख़ासियतों के बारे में बता रही हैं, जो महिलाओं को घरेलू हिंसा से राहत दिलाने में बेहद प्रभावी हैं
घरेलू हिंसा अधिनियम वर्ष 2005 में बनाया गया और 26 अक्टूबर 2006 से इसे देश भर में लागू किया गया. इसका मक़सद घरेलू रिश्तों में हिंसा झेल रही महिलाओं को तत्काल और आपातकालीन राहत पहुंचाना है. यह भारत में पहला ऐसा क़ानून है जो महिलाओं को अपने घर में रहने का अधिकार देता है. घरेलू हिंसा विरोधी क़ानून के तहत पत्नी या फिर बिना विवाह किसी पुरुष के साथ रह रही महिला मारपीट, यौन शोषण, आर्थिक शोषण या फिर अपमानजनक भाषा के इस्तेमाल की परिस्थिति में इस क़ानून का सहारा लेकर आरोपी पर कार्रवाई कर सकती है. इसके तहत महिलाओं को निम्न अधिकार मिले हैं.
शादीशुदा या अविवाहित स्त्रियां अपने साथ हो रहे अन्याय व प्रताड़ना को घरेलू हिंसा क़ानून के अन्तर्गत दर्ज कराकर उसी घर में रहने का अधिकार पा सकती हैं, जिसमें वे रह रही हैं.
यदि किसी महिला की इच्छा के विरुद्ध उसके पैसे, शेयर्स या बैंक अकाउंट का इस्तेमाल किया जा रहा हो, तो इस क़ानून का इस्तेमाल करके वह इसे रोक सकती हैं.
विवाहित होने की स्थिति में अपने बच्चे की कस्टडी और मानसिक/शारीरिक प्रताड़ना का मुआवज़ा मांगने का भी उसे अधिकार है.
यदि विवाहित महिला को उसके ससुरालजन प्रताड़ित कर रहे हैं, तो इस क़ानून के अन्तर्गत घर का बंटवारा कर महिला को उसी घर में रहने का अधिकार मिल जाता है और उसे प्रताड़ित करने वालों को उससे बात तक करने की इजाज़त नहीं दी जाती है.
घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत महिलाएं ख़ुद पर हो रहे अत्याचार के लिए सीधे न्यायालय से गुहार लगा सकती हैं, इसके लिए वक़ील को लेकर जाना ज़रूरी नहीं है. अपनी समस्या के निदान के लिए पीड़ित महिला वक़ील, प्रोटेक्शन ऑफ़िसर और सर्विस प्रोवाइडर में से किसी एक को साथ ले जा सकती है और चाहे तो ख़ुद ही अपना पक्ष रख सकती है.
भारतीय दण्ड संहिता-498 के तहत किसी भी शादीशुदा महिला को दहेज के लिए प्रताड़ित करना क़ानूनन अपराध है, जिसमें सज़ा पाने की अवधि बढ़ाकर आजीवन कर दी गई है.
हिन्दू विवाह अधिनियम 1995 के तहत निम्न परिस्थितियों में कोई भी पत्नी अपने पति से तलाक़ ले सकती है-पहली पत्नी होने के बावजूद व्यक्ति द्वारा दूसरी शादी करने पर, पति के सात साल तक लापता होने पर, पति से शारीरिक सम्बन्धों में सन्तुष्ट न होने पर, पति द्वारा मानसिक या शारीरिक रूप से प्रताड़ित करने पर, पति द्वारा धर्म परिवर्तन करने पर, पति को गम्भीर या लाइलाज बीमारी होने पर, यदि पति ने पत्नी को त्याग दिया हो और उन्हें अलग हुए एक वर्ष से अधिक समय हो चुका हो तो.
यदि पति बच्चे की कस्टडी पाने के लिए कोर्ट में पत्नी से पहले याचिका दायर कर दे, तब भी महिला को बच्चे की कस्टडी प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार है.
स्त्री-धन वह धन है जो नगद, ज़ेवर, सजावटी व आम इस्तेमाल की वस्तुओं के रूप में महिला को शादी के वक़्त उसके दोस्तों, रिश्तेदारों, ससुराल पक्ष और मायके पक्ष से उपहार के तौर पर मिलता है. इन चीज़ों पर लड़की का पूरा हक़ होता है. अगर ससुरालवालों ने महिला का स्त्री-धन अपने पास रख लिया है, तो महिला इसके ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा-406 (अमानत में ख़यानत) के अन्तर्गत शिकायत दर्ज करा सकती है. इसके तहत कोर्ट के आदेश से महिला को अपना स्त्री-धन वापस मिल सकता है. तलाक़ के बाद महिला को गुज़ारा-भत्ता, स्त्री धन और बच्चों की कस्टडी पाने का अधिकार होता है, जिसका फ़ैसला साक्ष्यों के आधार पर अदालत करती है.
पति की मृत्यु या तलाक़ होने की स्थिति में महिला अपने बच्चों की संरक्षक बनने का दावा कर सकती है.
सी.आर.पी.सी. के सेक्शन-125 के अन्तर्गत पत्नी को मेन्टेनेन्स, जो कि भरण-पोषण के लिए आवश्यक है, का अधिकार मिला है. यहां पर यह जान लेना ज़रूरी है कि जिस तरह से हिन्दू महिलाओं को ये तमाम अधिकार दिए गए हैं, उसी तरह या उसके समकक्ष या सामानांतर अधिकार अन्य महिलाओं (जो कि हिन्दू नहीं हैं) को भी उनके पर्सनल लॉ में उपलब्ध हैं, जिनका उपयोग वे कर सकती हैं.
तलाक़ की याचिका पर शादीशुदा स्त्री हिन्दू मैरेज ऐक्ट के सेक्शन-24 के तहत गुज़ारा-भत्ता ले सकती है. तलाक़ लेने के निर्णय के बाद सेक्शन-25 के तहत परमानेंट एलिमनी लेने का भी प्रावधान है. इतना ही नहीं, यदि पत्नी को दी गई रक़म कम लगती है तो वह पति को अधिक ख़र्च देने के लिए बाध्य भी कर सकती है. गुज़ारे-भत्ते का प्रावधान एडॉप्शन एण्ड मेन्टेनेन्स ऐक्ट में भी है. विधवा महिलाएं यदि दूसरी शादी नहीं करती हैं, तो वे अपने ससुर से गुज़ारा-भत्ता पाने का अधिकार रखती हैं.