विनोद तिवारी मीडिया जगत का वह जाना पहचाना नाम है, जिन्हें इस क्षेत्र के हर अंग का अच्छा अनुभव है फिर वह चाहे अख़बार हो, पत्रिकाएं हों, फिल्में हों, टेलीविजन हो, रेडियो हो या नवोदित पत्रकारों का प्रशिक्षण हो. उन्होंने एक लंबा अर्सा हिंदी पत्रकारिता और उसे उसे समृद्ध करने में बिताया है, यही वजह है कि हिंदी माह के दौरान ओए अफ़लातून की ख़ास पेशकश हिंदी वाले लोग में शिल्पा शर्मा ने उनसे जाना कि वे हिंदी को कहां देखते हैं…
इससे पहले कि इंटरव्यू शुरू किया जाए लाज़मी है कि मैं आपको विनोद तिवारी का परिचय दे दूं, ताकि आप उनके साथ तुरंत कनेक्ट कर सकें. विनोद तिवारी ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप की पत्रिका माधुरी का बरसों सफल संपादन किया, दूरदर्शन नियमित कार्यक्रम करते रहे. देश में जब सोनी एंटरटेनमेंट टेलीविजन ने कामकाज शुरू किया उन्हें वहां एग्ज़ेक्यूटिव प्रोड्यूसर बनाया गया. वहां से आप सीनियर मैनेजर के पद से रिटायर हुए.
मुंबई विश्वविद्यालय ने हिंदी में पत्रकारिता और कम्यूनिकेशन में पोस्ट ग्रैजुएट डिप्लोमा कोर्स शुरू किया तो उन्हें मास कम्यूनिकेशन विषय का गेस्ट लेक्चरर नियुक्त किया गया. लगभग 20 साल तक वे यूनिवर्सिटी में पढ़ाते रहे. उनकी लिखी किताबें उन विश्वविद्यालयों में स्वीकृत हैं, जहां मीडिया के कोर्स हैं.
वर्तमान में वे श्री राजस्थानी सेवा संघ की एकैडमी ऑफ़ ऑडियो विशुअल आर्ट्स ऐंड जर्नलिज़्म (आवाज) के निदेशक हैं.
उनका अनुभव इतना अधिक है कि हिंदी, हिंदी पत्रकारिता और हिंदी के भविष्य को लेकर हमने उनसे बातचीत की, उनके विचार जाने. यहां पेश हैं उनसे किए गए सवाल और उनके जवाब.
आप लंबे समय तक पत्रकारिता में रहे हैं, माधुरी जैसी सफल पत्रिका के एडिटर रहे हैं और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी बड़े पदों पर आने काम किया है. आपके अनुभव का दायरा बहुत व्यापक है, बावजूद इसके मेरा पहला सवाल यह है कि आपके पत्रकारिता में आने की कहानी क्या है?
घर का स्वामी कहलाने के बावजूद पति, पत्नी से डरता है. गृह स्वामिनी चूहे से डरती है. चूहा बिल्ली से, बिल्ली कुत्ते से…यह सिलसिला बढ़ता-बढ़ता जंगल के राजा शेर और वहां से आईपीएस अफ़सर, ज़िला पुलिस सुपरिंटेंडेट तक पहुंचता देखा. जब बीए करने ज़िला मुख्यालय शिमला के कॉलेज में दाख़िला लिया तो देखा पुलिस सुपरिंटेंडेंट आईएएस अफ़सर डीएम से घबराता है. तब तक सभी युवाओं की तरह मन में आईएएस की परीक्षा देकर सरकारी अफ़सर बनने का इरादा मज़बूत था. एमए करने नैनीताल के तत्कालीन डीएसबी डिग्री कॉलेज में आ जाने पर देखा कि डीएम तो एमएलए, एमपी इन सबसे से डरता है और उनके नैनीताल आने पर उनके रहने-खाने की व्यवस्थता में दौड़ता दिखाई देता है. यह भी देखा कि एमएलए, एमपी मिनिस्टर्स से डरे रहते हैं. और मिनिस्टर? पद, प्रभाव, धन और बल में वह हर तरह श्रेष्ठ होने पर भी अपने मुक़ाबले चूहे जैसी हैसियत रखने वाले पत्रकारों से डरा रहता है, क्योंकि उनके हाथ में होती है जनता के बल की प्रतीक–कलम. तब यह स्पष्ट हुआ कि कलम की ताक़त से बढ़ कर कुछ नहीं. साधना ही है तो शेरों के इस शेर को क्यों न साधा जाए?
लेकिन पत्रकारिता को साधना कोई आसान काम तो नहीं. एक जुनून होना चाहिए मन में कि आईएस वाला रुतबा न सही, पे के हिसाब से भी कमतर ही सही, मन की बात कहने का मौक़ा तो होगा. बात कहने के लिए भाषा चाहिए पढ़ने-लिखने का शौक़ चाहिए, रोज़मर्रा की ज़िंदगी को नज़दीक से देखने की आदत चाहिए. है यह सब? ग़ौर से परखा तो पाया, थोड़ा है, थोड़े की ज़रूरत है.
लिखने की आदत के प्रमाण-स्वरूप कुछ पुरस्कार थे, जो विभिन्न प्रतियोगिताओं में मिले थे. कक्षा 6 से लेकर एमए तक स्कूल-कॉलेज की मैगज़ीनों में छात्र प्रतिनिधि बनकर शामिल रहने का ‘अनुभव’ भी था. बस, बात बन गई.
बात बनी ऐसे कि एमए फ़ाइनल का रिज़ल्ट आने के पहले ही नवभारत टाइम्स में प्रकाशित उस विज्ञापन पर नज़र जा टिकी, जिसमें नवोदित पत्रकारों को प्रशिक्षण दे कर टाइम्स प्रतिष्ठान में शामिल कर लेने की योजना का ब्यौरा दिया गया था. शर्त यह थी कि इसके लिए उनकी अखिल भारतीय प्रतियोगिता परीक्षा पास करनी होगी, जिसमें लिखित और इंटरव्यू, दोनों तरह के टेस्ट्स लिए जाएंगे. उसमें सफलता ही वह प्रवेश द्वार बनी, जिसने मुझे मेरे वांछित कार्यक्षेत्र में पहुंचा दिया.
यह पहले से सोचा हुआ नहीं था कि मुझे फ़िल्म पत्रकार ही बनना है. टाइम्स ऑफ़ इंडिया संस्थान, मुंबई, में मेरा प्रशिक्षण पूरा हुआ ही था कि मैनेजमेंट ने तब की मशहूर फ़िल्म पत्रिका ‘फ़िल्मफ़ेअर’ की जैसी ही हिंदी फ़िल्म पत्रिका निकालने की योजना को मूर्तरूप दे दिया. इस तरह मेरी नियुक्ति हुई, अरविंद कुमार जी के संपादन में निकाली जाने वाली ‘माधुरी’ में. लगभग तीन दशक तक मैंने उसमें इंटर्न से लेकर संपादक तक का सफ़र तय किया. टाइम्स संस्थान, मेरे संपादक अरविंद जी तथा तत्कालीन मैनेजिंग डायरेक्टर डॉक्टर राम तरनेजा ने मुझे भरपूर मौक़ा दिया, इसके लिए मैं उनका आभारी रहूंगा.
प्रिंट पत्रकारिता से आप इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता में कैसे आ गए?
कहते हैं ना कि ‘ऑल गुड थिंग्स विल कम टु एन एंड सम डे.’ जब टाइम्स ग्रुप की बरसों से प्रकाशित हो रहीं तमाम लोकप्रिय पत्रिकाएं- ‘धर्मयुग’, ‘इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया’, ‘सारिका’, ‘पराग’, ‘दिनमान’, ‘साइंस टु डे’ वगैरह पाठकों के दिलो-दिमाग़ में बसी हुईं थीं, मैनेजमेंट ने उन्हें बारी-बारी बंद कर देने का फ़ैसला ले लिया. ‘माधुरी’ भी इसी फ़ैसले का शिकार हुई. तमाम पत्रकारों –संपादकों की तरह मैं भी बेकारी की मार झेल रहा था. इन दिनों तक इलेक्ट्रॉनिक माध्यम ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था. टाइम्स द्वारा पत्रिकाओं को बंद करने के फ़ैसले का असर पाठकों और प्रकाशन व्यवसाय, दोनों पर बड़ा घातक सिद्ध हुआ. रोज़ कुछ नया पढ़ने के संस्कार और बनी-बनाई आदत ध्वस्त हो गए. नई पत्रिका प्रकाशित करने का साहस चूर चूर हो गया. इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की नई विकसित तकनीक और चमक-धमक ने इस आग में घी डाला. रोज़ नए आते विदेशी चैनलों के क्रम में शुरुआत हुई ‘सोनी एंटरटेनमेंट चैनल’ की. मुझे इसी के फ़िल्म प्रभाग में ले लिया गया.
फ़िल्म जर्नलिज़्म आपके समय कैसा था और आब उसे कैसा पाते हैं? यह बात प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही तरह के माध्यमों के संबंध में बताइए, क्योंकि आपको दोनों का ही गहरा अनुभव है.
उस समय की हिंदी फ़िल्म पत्रकारिता बुरी नहीं तो अच्छी हालत में भी नहीं थी. हिंदी फ़िल्म पत्रिकाओं की भरमार थी, जिनके के प्रकाशन का गढ़ था दिल्ली. फ़िल्मकारों और फ़िल्म उद्योग से कोई सीधा संबंध न होने पर भी फ़िल्म पत्रिकाएं इसलिए दिल्ली से छपती थीं कि यह फ़िल्म वितरण व्यवसाय का बड़ा केंद्र था. नई फ़िल्मों के फ़ोटोग्राफ़्स, आनेवाली फ़िल्मों की कहानियां, प्रचार के लिए तैयार की गई सामग्री सब फ़िल्म वितरकों से सहज में और नि:शुल्क उपलब्ध हो जाती. प्रिंटिंग भी बंबई के मुक़ाबले सस्ती होती थी. पत्रिका में मुख्य काम संयोजन का ही रह जाता था, जिसे प्रकाशक पूरा कर लेता. इस तरह, किसी ऐसी कल्पनाशील, दूरदर्शी संपादक की ज़रूरत ही महसूस नहीं की गई, जो फ़िल्म पत्रकारिता को गंभीरता से लेता और उसे कोई दिशा देने की कोशिश करता. इस कमी का असर हिंदी फ़िल्म पत्रकारिता में आज तक बना हुआ है.अरविंद कुमार ने इस स्थिति को बदलने की कोशिश की. फ़िल्म पत्रकारिता को उन्होंने जो नए आयाम दिए, उनकी वजह से ही यह पत्रिका आज तक याद की जाती है.
क्या इंग्लिश की फ़िल्म पत्रकारिता के भी यही हाल थे?
नहीं, वहां स्थितियां अपेक्षाकृत बेहतर रहीं. भारत की पहली मान्य फ़िल्म पत्रिका कही जानेवाली इंग्लिश मैगज़ीन ‘फ़िल्म इंडिया’ के प्रकाशक-संपादक बाबूराव पटेल राजनीतिक समझ वाले व्यक्ति थे, जिन्होंने बाद में ‘मदर इंडिया’ भी निकाली. ‘फ़िल्म इंडिया’ लोकप्रिय तथा स्तरीय पत्रिका थी. बाद में टाइम्स ऑफ़ इंडिया संस्थान की फिल्म पत्रिका ‘फ़िल्मफ़ेअर’ ने शालीन फ़िल्म पत्रकारिता को आगे बढ़ाया, जिसकी नीति थी कि फ़िल्मकार अपने क्षेत्र में अपना काम करें, हम पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना काम करते हुए उनके साथ सद्भावना बनाए रखें.
यह क्रम तब टूटा जब इंग्लिश में लिखने वाले/वाली कुछ जर्नलिस्ट्स ने अपनी कुंठाओं को तथाकथित गॉसिप का नाम देकर फ़िल्मकारों की निजता को सार्वजनिक करके चटखारेदार लेखन शुरू किया. इस ट्रेंड ने ख़ूब ज़ोर पकड़ा और तभी से फ़िल्मकारों और फ़िल्म पत्रकारों के बीच अविश्वास की खाई बढ़ने लगी. फ़िल्मकारों ने पत्रकारों से एक निश्चित दूरी बनाए रखना उचित समझा. ऊपरी तौर पर कोई कुछ भी कहे, लेकिन यह सच है कि बड़े फ़िल्मकार फ़िल्म पत्रकारों को बहुत पास आने नहीं देना चाहते.
इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता की स्थिति इसलिए उल्लेखनीय नहीं बन पाई कि वहां महत्व विशुअल का है. जो भड़कीला न दिखाया जा सके, उसे विज्ञापन नहीं मिलेंगे. जिसे विज्ञापन नहीं मिलेंगे, उसे छोड़ना बेहतर माना जाता है. इसलिए ऐसे अनेक विषय वहां मान्य नहीं हो पाते जो पत्रकारिता की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकते हैं. अब उनकी भरपाई कर रहे हैं चटखारेदार टॉक शोज.
यदि हिंदी भाषा की बात करूं तो तब और अब की भाषा में आप क्या फ़र्क़ पाते हैं? और ये फ़र्क़ आपको कैसा लगता है?
हिंदी की विशेषता और उदारता है कि वह सदा सबको साथ लेकर चलती है और ज़रूरत की अनुसार ढल जाना जानती है. यही उसके निरंतर विकास की वजह है. एक समय कहा जाता था कि इसमें वह रूमानियत नहीं है, जो फ़िल्मी कहानियों और गीतों की जान है. बिना कोई फ़साद किए पंडित भरत व्यास के गीतों ने यह मिथ तोड़ दिया. कुछ दशक बाद रवींद्र जैन रचित गीतों ने इस भ्रम को पुन: दूर किया. एक समय इसकी गति को ‘स्लो पेस’ कहा जाता था, आज की अति आधुनिक पीढ़ी उसी हिंदी में फ़ास्ट ट्रैक रचनाएं देकर समय के साथ क़दमताल कर रही है कि नहीं! फ़र्क़ समय के साथ बढ़ती गति में आया है और हिंदी कभी समय से पीछे नहीं रही, यही फ़र्क़ मुझे मोहता है.
क्या आपको लगता है कि इंटरनेट के आने से हिंदी भाषा ग्लोबलाइज़ हुई है, उसकी पहुंच बढ़ी है और वह समृद्ध हुई है?
हिंदी समृद्ध तो सदा से ही थी. उसकी समृद्धता पर शक़ तो अंग्रेज़ी को सदैव के लिए बनाए रखने के षडयंत्र के तहत प्रकट किया जाता रहा है. ग्लोबलाइज़ भी पहले से थी. उत्तर भारतीय भले ही एक समय मज़दूरी के लिए विदेश गए या ले जाए गए, लेकिन जहां गए हिंदी का साथ तो नहीं छोड़ा उन्होंने. दूसरी, तीसरी पीढ़ी में यही मज़दूर शासक हो गए. उनके साथ-साथ हिंदी वहां के अलग स्वरूप में विकसित होती रही. कामकाज और व्यापार के सिलसिले में भारतीय जहां गए हिंदी के बग़ैर नहीं रहे. आज यह भाषा हर उस देश में बोली-समझी जाती है, जहां भारतीय रहते हैं और आज भारतीय भला कहां नहीं हैं?
आपका यह कहना बिलकुल सही है कि कंप्यूटर और इंटरनेट आ जाने से हिंदी के प्रचार–प्रसार में बड़ी मदद मिली, क्योंकि इससे हिंदी का कामकाजी भाषा स्वरूप उभरकर सामने आ सका. भाषा जनसामान्य तक पहुंचती ही कामकाज से है, हिंदी दिवस मनाने या विदेशों में हिंदी सम्मेलनों के ख़र्चीले आयोजनों से नहीं. बहुत समय तक हिंदी सॉफ़्टवेयर्स और फ़ॉन्ट्स की समस्या बनी रही, जिससे कुछ बाधाएं आईं, लेकिन अब यूनीकोड ने इन्हें दूर करके हिंदी की गति को और तेज़ कर दिया है. अब कंप्यूटर शब्दावली भी हिंदी में आ गई है, जिससे वे लोग जो इंग्लिश में सहज नहीं थे, वे भी सब समझने लगे हैं. विविध भाषा-भाषी, पंसारी, सब्ज़ीवाला, फल बेचनेवाला, सुरक्षा गार्ड और घरों में सहायिका का काम करने वाली महिलाएं तक हिंदी में संदेशों का आदान-प्रदान कर रहे हैं. उनमें हिंदी प्रतिरोध की राजनीति का कोई असर नहीं है. भारत के किसी गांव से मां, विदेश में कार्यरत अपने बेटे की कुशल रोज़ पा लेती है. इन सब लोगों ने हिंदी में अपने शब्द और अभिव्यक्तियां जोड़ी हैं, उसे आवश्यकता के अनुसार समृद्ध किया है. इन्हें न किसी राजभाषा विभाग की ज़रूरत पड़ी, न किसी शब्दकोश की. यही गुण हिंदी को प्रवाहमान बनाए रखता है.
क्या आपको लगता है कि हिंदी भाषा में करियर बनाने के मौक़े, अब पहले से अधिक हैं? यदि हां तो क्यों?
मैं कह चुका हूं कि जब भाषा राजभाषा-राष्ट्रभाषा की दलगत और प्रादेशिक संकीर्ण राजनीति की जगह कामकाज की भाषा बनने लगती है तब यह भौगोलिक सीमाएं टूटने लगती हैं. विदेश भ्रमण के दौरान स्विट्जरलैंड, थाईलैंड, बाली आदि के होटलों में मुझे तमिल नाडु निवासी ऐसे कर्मचारी मिले, जिनकी वहां नियुक्ति के पीछे एक गुण यह भी माना गया कि उन्हें हिंदी आती है. ऐसे परिवर्तन प्रकट रूप से दिखाई न दें, लेकिन वे परिवर्तन के परिवाहक ज़रूर हैं. स्विटज़रलैंड की बर्फ़ ढकी चोटी पर बने रेस्तरां में देवनागरी में यह लिखा देख कर सुखद आश्चर्य हुआ था–’यहां भारतीय मुद्रा स्वीकार की जाती है.’
चूंकि आप आज तक नई पीढ़ी के उन बच्चों के साथ जुड़े हैं, जो जर्नलिज़्म के क्षेत्र में करियर बनाना चाहते हैं तो आपको यह पीढ़ी कितनी उम्मीदों से भर देती है?
यहां पर मुझे कुछ निराशा होती है. नई पीढ़ी में जोश है, जानकारी है, कुछ नया कर दिखाने की तमन्ना है, लेकिन ख़ुद को अभिव्यक्त कर पाने वाली शुद्ध, सशक्त भाषा का अभाव है. शुद्ध से मेरा आशय संस्कृतमय होना नहीं है. छोटी क्लासों में इनसे इंग्लिश की खानापूरी पढ़ाई कराई जाती है. दिमाग़ में यह भरा जाता है कि आगे जा कर साइंस-कॉमर्स के बिना गुज़ारा नहीं होगा. इसलिए हिंदी को कोई गंभीरता से नहीं लेता. कुछ नुक़सान इस धारणा से भी होता है कि अरे, हिंदी तो अपनी ही भाषा है, उसमें पढ़ना क्या? इसका नतीजा यह है कि जो बच्चे ग्रैजुएट होने के बाद पत्रकारिता में जगत में प्रवेश के लिए प्रशिक्षण पाने आते हैं, उनकी इंग्लिश तो कमज़ोर होती ही है, हिंदी में भी उनका भ्रम उन्हें ‘की’ और ’कि’ के बीच अंतर नहीं समझा पाता. यह सरासर शिक्षा पद्धति का दोष है. आज के युवा का एक भी भाषा पर अधिकार नहीं है. मात्रा और व्याकरण की अशुध्दियां, वाक्य रचना, भूतकाल-वर्तमानकाल का बोध जैसी सामान्य बातें उसकी समझ से परे होती जा रही हैं. पत्रकारिता के प्रति उत्साह रखनेवालों को भाषा पर पूर्ण अधिकार होना ही चाहिए भाषा की अशुद्धियां उन कंकड़ों के तरह होती हैं, जो स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन तक को खाने लायक़ नहीं रहने देते.
आप हिंदी जर्नलिज़्म या हिंदी फ़िल्म जर्नलिज़्म में आनेवाले नए दौर के युवाओं से क्या कहना चाहेंगे?
पत्रकारिता ही क्यों, किसी भी क्षेत्र में सफल होने के लिए ज़रूरी है उसकी गहरी जानकारी. दुर्भाग्यवश धारणा यह है कि फ़िल्म जर्नलिज़्म के लिए यह ज़रूरी नहीं. बड़े बड़े संस्थानों तक में फ़िल्म पत्रकारिता अर्थ सितारों के ग्लैमर और गॉसिप से ज़्यादा कुछ नहीं. मैं कहना यही चाहूंगा कि इस धारणा से बाहर निकलें. फ़िल्म कला महासागर है. ग्लैमर और गॉसिप इसकी तलछट से भी नीचे की चीजें हैं. सितारों का ग्लैमर बड़ी नक़ली चीज़ है. उसके प्रभाव में आकर, उनके सामान्य फ़ैन की तरह व्यवहार करते पत्रकार का कोई फ़िल्मकार आदर क्यों करेगा? पत्रकार से उनकी उम्मीद होती है कि वह उनकी कला का सम्यक विश्लेषण करके उनका मार्गदर्शन करेगा. इसकी जगह जब वह यह देखता है कि पत्रकार, ख़ासकर महिला पत्रकार उसके ज़्यादा से ज़्यादा नज़दीक आ कर, चिपककर फ़ोटो खिंचाने में ख़ुद को धन्य समझ रहे हैं, तब उसे फ़िल्म पत्रकारिता का अर्थ चाटुकरिता लगने लगता है. इस धारणा को तोड़ने की कोशिश कीजिए. उनको एहसास दिलाइए कि आप उस जनता के प्रतिनिधि हैं जिसकी पसंद-नापसंद पर ही उनका सारा खेल चलता है और इस नाते आपकी जगह उनसे ऊंची न सही, उनके समक्षक तो है ही. इंटरव्यू के समय उनसे सहमिए नहीं, खुलकर वह सब सवाल पूछिए जिनके सवाल जनता जानना चाहती है. फ़िल्म की समीक्षा को खेल मत समझिए. इसा गहन अध्ययन कीजिए. अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा की समझ विकसित कीजिए. उसके बदलते ट्रेंड्स को समझने की कोशिश कीजिए. फ़िल्म व्यापार की जटिलताओं को जानिए. कुल मिलाकर, आपका लेखन ऐसा हो कि फ़िल्मकार, वह ऐक्टर हो, डायरेक्टर हो, संगीतज्ञ हो, फ़िल्म लेखक हो, उसे पढ़ने-सुनने-देखने को आतुर रहे. इसके लिए वर्षों की साधना चाहिए. तो आप ख़ुद से पूछिए कि क्या आप इतनी साधना के लिए तैयार हैं?