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भाषा की पाठशाला: शब्दों को बरतना भी एक कला है!

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
May 15, 2023
in करियर-मनी, ज़रूर पढ़ें, लाइफ़स्टाइल
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भाषा की पाठशाला: शब्दों को बरतना भी एक कला है!
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यदि आप हिंदी साहित्य, हिंदी मीडिया, अंग्रेज़ी से हिंदी के अनुवाद के क्षेत्र से जुड़े हैं तो करियर की इस श्रृंखला में हम समय-समय पर वरिष्ठ पत्रकार, लेखक व अनुवादक प्रियदर्शन की उन व्यावहारिक टिप्पणियों से आपको रूबरू करवाते रहेंगे, जो आपके करियर को तराश कर बेहतरीन शक़्ल देंगी. हां, इन टिप्पणियों में कही गई बातों को अमल में लाना आपकी ज़िम्मेदारी होगी और इन्हें अमल करते-करते एक दिन आप पाएंगे कि आप धीरे-धीरे शब्दों को बरतने की कला सीखते जा रहे हैं.

वर्ष 2004 में हम लोगों ने एक बिल्कुल अनजान शब्द सुना था- सुनामी. पता चला कि समंदर के भीतर आए भूकंप को सुनामी कहते हैं. तब इस शब्द का इस्तेमाल करते हुए हम इसका मतलब भी समझाते थे, लेकिन वर्ष 2014 आते-आते सुनामी हिंदी का मुहावरा बन चुकी थी. हम लिखने लगे थे- मोदी की सुनामी, केजरीवाल की सुनामी, ममता की सुनामी.

इस एक बिल्कुल अप्रचलित शब्द ने एक दशक के भीतर हमारी शब्दावली चुपचाप बदल दी. नहीं तो इसके पहले हम बड़े राजनीतिक समर्थन के लिए ‘आंधी’ या ‘लहर’ शब्द का इस्तेमाल करते थे- इंदिरा की आंधी, जनता पार्टी की लहर आदि.
हालांकि लहर, आंधी, सुनामी सब अलग हैं. मुहावरे के रूप में इनका इस्तेमाल करते हुए हमें सचेत रहना चाहिए कि कहां हम लहर लिखें, कहां सुनामी या कहां आंधी या तूफ़ान.

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दरअसल शब्द लेखन की सबसे छोटी सार्थक इकाई है, लेकिन है सबसे महत्वपूर्ण. हर शब्द एक अलग अर्थ देता है. जिन्हें हम पर्यायवाची शब्द कहते हैं, उनकी छायाएं भी अलग होती हैं. मेरे लिए सूरज और सूर्य भी अलग-अलग हैं. सूरज की ध्वन्यात्मकता जो प्रभाव पैदा करती है, सूर्य की छवि उससे कुछ अलग हो जाती है.

निर्मल वर्मा ने अपने एक लेख में ग़रीबी और दरिद्रता के बीच अंतर बताया है. उनका कहना है कि ग़रीबी में स्वाभिमान होता है और दरिद्रता में ओछापन. हालांकि भाषाविज्ञान की दृष्टि से ग़रीबी और दरिद्रता के अर्थ एक ही होते हैं.

दिलचस्प ये है कि ब्राज़ील के जाने-माने शिक्षाशास्त्री पाउलो फ्रेरे ग़रीब शब्द का इस्तेमाल करना पसंद नहीं करते थे. उनका कहना था कि जब हम किसी को ग़रीब कहते हैं तो लगता है कि वह नियति से ग़रीब है. जबकि वह उत्पीड़ित होता है- वह किसी व्यवस्था के उत्पीड़न का शिकार होता है. उनकी किताब है ‘उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र’.

एक ही शब्द पर निर्मल वर्मा और फ्रेरे की अलग-अलग दृष्टियां बताती हैं कि लेखक शब्दों को अपनी तरह से मांजते हैं, उनको नए अर्थ देते हैं, उनका विस्तार करते हैं. यह उनके कौशल पर ही नहीं, उनकी संवेदनशीलता और उनकी वैचारिक सघनता पर निर्भर करता है कि वह किसी शब्द को कितने नए अर्थ दे पाते हैं, उसमें कितनी चमक, कितना अंधेरा, कितनी आवाज़ें या फिर कितनी चुप्पी पैदा कर पाते हैं.

हर शब्द अपने भीतर काफ़ी कुछ समेटे होता है. अर्थ उसका सबसे स्थूल अवयव होता है. हर शब्द की एक स्मृति होती है, उसकी एक छवि या छाया होती है जो पढ़ने वाले के भीतर उतरती है. जब हम ‘मां’ या‌ ‘धर्म’ कहते हैं तो हमारे भीतर इनसे जुड़ी स्मृति एक चित्र बनाती है. लेखक का काम यह भी होता है कि वह जिन शब्दों का इस्तेमाल कर रहा है उनकी अर्थच्छायाओं के प्रति सजग रहे और ध्यान रखे कि वह पाठक तक किस रूप में पहुंच रहे हैं या पहुंच सकते हैं.

सबसे संप्रेषणीय वे शब्द होते हैं जो हमारे भीतर से निकलते हैं- हमारी बेचैनी से, हमारी विकलता से, हमारी वैचारिकता से, हमारे अंतर्द्वंद्व से, हमारे सरोकार से. अगर यह शब्द यहां से नहीं निकलते और हम उन्हें किसी उपलब्ध सामग्री की तरह बाहर से उठाते हैं तो वे बेजान हो जाते हैं. वे शब्दकोशों के मुर्दा शब्द हो जाते हैं, वे हमें व्यक्त नहीं कर पाते, हम उनसे पाठकों को जोड़ने में असमर्थ होते हैं.

शब्दों का बहुत सावधानी और मितव्ययिता से इस्तेमाल करना चाहिए. बहुत ज़्यादा शब्द बहुत ज़्यादा अर्थ नही देते- उल्टे वे निरर्थक होते जाते हैं, उनका जादू गुम होता जाता है. लेकिन हममें से कितने लोग यह बात समझते हैं?

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

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